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अध्यात्मनवनीत
(अक्षत) प्रभु! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ। क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ।। अक्षत का अक्षत-संबल ले, अक्षत-साम्राज्य लिया तुमने। अक्षत-विज्ञान दिया जग को, अक्षत-ब्रह्माण्ड किया तुमने ।। मैं केवल अक्षत अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया। निर्वाण-शिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
(पुष्प) तुम सुरभित ज्ञान-सुमन हो प्रभु, नहिं राग-द्वेष दुर्गन्ध कहीं। सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, जग से कुछ भी संबंध नहीं।। निज अंतर्वास सुवासित हो, शून्यान्तर पर की माया से।
चैतन्य-विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से ।। सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पवेलि से यह लाया। इनको पा चहक उठा मन-खग, भर चोंच-चरण में ले लाया।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
(नैवेद्य) आनंद रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं। तुम मुक्त क्षुधा के वेदन से, षट्रस का नाम-निशान नहीं।। विध-विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शांत हुई मेरी। आनंद सुधारस निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी ।। चिर-तृप्ति-प्रदायी व्यंजन से, हो दूर क्षुधा के अंजन ये। क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी? जब पाये नाथ निरंजन ये ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
(दीप) चिन्मय-विज्ञान-भवन अधिपति, तुमलोकालोकप्रकाशकहो। कैवल्य-किरण से ज्योतित प्रभु! तुम महामोहतम नाशक हो।। तुम हो प्रकाश के पुंजनाथ! आवरणों की परछाँह नहीं। प्रतिबिंबित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आँच नहीं।।
श्री सीमन्धर पूजन ले आया दीपक चरणों में, रे! अंतर आलोकित कर दो। प्रभु तेरे मेरे अन्तर को, अविलंब निरंतर से भर दो।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
(धूप) धू-धूजलती दुख की ज्वाला, प्रभुत्रस्त निखिल जगतीतल है। बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है ।। यह धूम धूमरी खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में। अज्ञानतमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग-रलियों में ।। संदेश धूम का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए उर्ध्वगामी जग से। प्रगटे दशांग प्रभुवर तुम को, अंत:दशांग की सौरभ से ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
(फल) शुभ-अशुभ वृत्ति एकांत दुःख, अत्यंत मलिन संयोगी है। अज्ञान विधाता है इनका, निश्चित चैतन्य विरोधी है।। काँटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य-सदन के आँगन में। चंचल छाया की माया-सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में ।। तेरी फल-पूजा का फल प्रभु! हों शांत शुभाशुभ ज्वालायें। मधुकल्प फलों सी जीवन में प्रभु! शांति लतायें छा जावें ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
(अर्घ्य) निर्मल जल-सा प्रभु निज स्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए। भव-ताप उतरने लगा तभी, चंदन-सी उठी हिलोर हिये ।। अविराम-भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति-प्रसून लगेखिलने। क्षुत-तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य-प्रदीप लगा जलने ।। मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए। फल हुआ प्रभो! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।