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अध्यात्मनवनीत इस तरह वे भ्रष्ट रहते संयतों के संघ में । रे जानते बहुशास्त्र फिर भी भाव से तो नष्ट हैं ।।१९।। पार्श्वस्थ से भी हीन जो विश्वस्त महिलावर्ग में । रत ज्ञान-दर्शन-चरण दें वे नहीं पथ अपवर्ग हैं ।।२०।। जो पुंश्चली के हाथ से आहार लें शंशा करें । निज पिंड पोसें वालमुनि वे भाव से तो नष्ट हैं ।।२१।। सर्वज्ञभाषित धर्ममय यह लिंगपाहुड जानकर । अप्रमत्त हो जो पालते वे परमपद को प्राप्त हों ।।२२।।
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शीलपाहुड़ विशाल जिनके नयन अर रक्तोत्पल जिनके चरण । त्रिविध नम उन वीर को मैं शील गुण वर्णन करूँ ।।१।। शील एवं ज्ञान में कुछ भी विरोध नहीं कहा । शील बिन तो विषयविष से ज्ञानधन का नाश हो ।।२।। बड़ा दुष्कर जानना अर जानने की भावना । एवं विरक्ति विषय से भी बड़ी दुष्कर जानना ।।३।। विषय बल हो जबतलक तबतलक आतमज्ञान ना। केवल विषय की विरक्ति से कर्म का हो नाश ना ।।४।। दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो । संयम रहित तप निरर्थक आकास-कुसुम समान हो ।।५।। दर्शन सहित हो वेश चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो । संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो ।।६।। ज्ञान हो पर विषय में हों लीन जो नर जगत में । रे विषयरत वे मूढ डोलें चार गति में निरन्तर ।।७।। जानने की भावना से जान निज को विरत हों । रे वे तपस्वी चार गति को छेदते संदेह ना ।।८।।
अष्टपाहुड़ : शीलपाहुड पद्यानुवाद
१९७ जिसतरह कंचन शुद्ध हो खड़िया-नमक के लेप से। बस उसतरह हो जीव निर्मल ज्ञान जल के लेप से ।।९।। हो ज्ञानगर्भित विषयसुख में रमें जो जन योग से । उस मंदबुद्धि कापुरुष के ज्ञान का कुछ दोष ना ।।१०।। जब ज्ञान, दर्शन, चरण, तप सम्यक्त्व से संयुक्त हो। तब आतमा चारित्र से प्राप्ति करे निर्वाण की ।।११।। शील रक्षण शुद्ध दर्शन चरण विषयों से विरत । जो आतमा वे नियम से प्राप्ति करें निर्वाण की ।।१२।। सन्मार्गदर्शी ज्ञानि तो है सुज्ञ यद्यपि विषयरत । किन्तु जो उन्मार्गदर्शी ज्ञान उनका व्यर्थ है ।।१३।। यद्यपि बहुशास्त्र जाने कुमत कुश्रुत प्रशंसक । रे शीलव्रत से रहित हैं वे आत्म-आराधक नहीं ।।१४।। रूप योवन कान्ति अर लावण्य से सम्पन्न जो । पर शीलगुण से रहित हैं तो निरर्थक मानुष जनम ।।१५।। व्याकरण छन्दरु न्याय जिनश्रुत आदि से सम्पन्नता । हो किन्तु इनमें जान लो तुम परम उत्तम शील गुण ।।१६।। शील गुण मण्डित पुरुष की देव भी सेवा करें । ना कोई पूछे शील विरहित शास्त्रपाठी जनों को ।।१७।। हों हीन कुल सुन्दर न हों सब प्राणियों से हीन हों । हों वृद्ध किन्तु सुशील हों नरभव उन्हीं का सफल है ।।१८।। इन्द्रियों का दमन करुणा सत्य सम्यक् ज्ञान-तप । अचौर्य ब्रह्मोपासना सब शील के परिवार हैं ।।१९।। शील दर्शन-ज्ञान शुद्धि शील विषयों का रिपू । शील निर्मल तप अहो यह शील सीढ़ी मोक्ष की ।।२०।। हैं यद्यपि सब प्राणियों के प्राण घातक सभी विष । किन्तु इन सब विषों में है महादारुण विषयविष ।।२१।।