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अध्यात्मनवनीत
यदि पढ़े बहुश्रुत और विविध क्रिया-कलाप करे बहुत । पर आतमा के भान बिन बालाचरण अर बालश्रुत ।। १०० ।। निजसुख निरत भवसुख विरत परद्रव्य से जो पराङ्मुख । वैराग्य तत्पर गुणविभूषित ध्यान धर अध्ययन सुरत । । १०१ । । आदेय क्या है हेय क्या यह जानते जो साधुगण । वे प्राप्त करते थान उत्तम जो अनन्तानन्दमय ।। १०२ ।। जिनको नमे थुति करे जिनकी ध्यान जिनका जग करे । वे न ध्यावें श्रुति करें तू उसे ही पहिचान ले ।। १०३ ।। अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी पण । सब आतमा की अवस्थायें आतमा ही है शरण ।। १०४ ।। सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण । सब आतमा की अवस्थायें आतमा ही है शरण ।। १०५ ।। जिनवरकथित यह मोक्षपाहुड जो पुरुष अति प्रीति से । अध्ययन करें भावें सुनें वे परमसुख को प्राप्त हों ।। १०६ ।।
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लिंगपाहुड़
कर नमन श्री अरिहंत को सब सिद्ध को करके नमन । संक्षेप में मैं कह रहा हूँ लिंगपाहुड शास्त्र यह ।। १ ।। धर्म से हो लिंग केवल लिंग से न धर्म हो । समभाव को पहिचानिये द्रवलिंग से क्या कार्य हो ||२|| परिहास में मोहितमती धारण करें जिनलिंग जो । वे अज्ञजन बदनाम करते नित्य जिनवर लिंग को ॥३॥ जो नाचते गाते बजाते वाद्य जिनवर लिंगधर । हैं पाप मोहितमती रे वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ||४|| जो आर्त होते जोड़ते रखते रखाते यत्न से ।
वे पाप मोहितमती हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ||५||
अष्टपाहुड़ : लिंगपाहुड़ पद्यानुवाद
अर कलह करते जुआ खेलें मानमंडित नित्य जो । वे प्राप्त होते नरकगति को सदा ही जिन लिंगधर ||६|| जो पाप उपहत आतमा अब्रह्म सेवें लिंगधर ।
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वे पाप मोहितमती जन संसारवन में नित भ्रमें ||७|| जिनलिंगधर भी ज्ञान-दर्शन-चरण धारण ना करें । वे आर्तध्यानी द्रव्यलिंगी नंत संसारी कहे ||८|| रे जो करावें शादियाँ कृषि वणज कर हिंसा करें । वे लिंगधर ये पाप कर जावें नियम से नरक में ।।९।। जो चोर लाबर लड़ावें अर यंत्र से क्रीडा करें । वे लिंगधर ये पाप कर जावें नियम से नरक में ।।१०।। ज्ञान-दर्शन-चरण तप संयम नियम पालन करें । पर दुःखी अनुभव करें तो जावें नियम से नरक में ।। ११ ।। कन्दर्प आदि में रहें अति गृद्धता धारण करें । हैं छली व्याभिचारी अरे ! वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ।। १२ ।। जो कलह करते दौड़ते हैं इष्ट भोजन के लिये । अर परस्पर ईर्षा करें वे श्रमण जिनमार्गी नहीं ।। १३ ।। बिना दीये ग्रहें परनिन्दा करें जो परोक्ष में । वे धरें यद्यपि लिंगजिन फिर भी अरे वे चोर हैं ।।१४।। ईर्या समिति की जगह पृथ्वी खोदते दौड़ें गिरें । मेरे पशूवत उठकर चलें वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ।। १५ ।। जो बंधभय से रहित पृथ्वी खोदते तरु छेदते । अर हरित भूमी रांधते वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।। १६ ।। राग करते नारियों से दूसरों को दोष दें । सद्ज्ञान- दर्शन रहित हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच है ।।१७।। श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो ।
हीन विनयाचार से वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।। १८ ।।