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अध्यात्मनवनीत
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जो शिवविमुख नर भोग में रत ज्ञानदर्शन रहित हैं । वे कहें कि इस काल में निज ध्यान-योग नहीं बने । । ७४ । । जो मूढ़ अज्ञानी तथा व्रत समिति गुप्ति रहित हैं वे कहें कि इस काल में निज ध्यान-योग नहीं बने ।। ७५ ।। भरत - पंचमकाल में निजभाव में थित संत के नित धर्मध्यान रहे न माने जीव जो अज्ञानि वे रतनत्रय से शुद्ध आतम आतमा का ध्यान धर । आज भी हों इन्द्र आदिक प्राप्त करते मुक्ति फिर ।।७७।। जिन लिंग धर कर पाप करते पाप मोहितमति जो । वे च्युत हुए हैं मुक्तिमग से दुर्गति दुर्मति हो ।।७८ ।। हैं परिग्रही अधः कर्मरत आसक्त जो वस्त्रादि में । अर याचना जो करें वे सब मुक्तिमग से बाह्य हैं ।। ७९ ।। रे मुक्त हैं जो जितकषायी पाप के आरंभ से । परिषहजयी निर्ग्रथ वे ही मुक्तिमारग में कहे ||८०|| त्रैलोक में मेरा न कोई मैं अकेला आतमा । इस भावना से योगिजन पाते सदा सुख शास्वता ।। ८१ । । जो ध्यानरत सुचरित्र एवं देव गुरु के भक्त हैं । संसार - देह विरक्त वे मुनि मुक्तिमारग में कहे ।।८२|| निजद्रव्यरत यह आतमा ही योगि चारित्रवंत है ।
यह ही बने परमातमा परमार्थनय का कथन यह ।।८३ || ज्ञानदर्शनमय अवस्थित पुरुष के आकार में । ध्याते सदा जो योगि वे ही पापहर निर्द्वन्द हैं ।। ८४ ।। जिनवरकथित उपदेश यह तो कहा श्रमणों के लिए। अब सुनो सुखसिद्धिकर उपदेश श्रावक के लिए ।। ८५ । । सबसे प्रथम सम्यक्त्व निर्मल सर्व दोषों से रहित । कर्मक्षय के लिये श्रावक-श्राविका धारण करें ||८६ ।।
अष्टपाहुड़ : मोक्षपाहुड़ पद्यानुवाद
अरे सम्यग्दृष्टि है सम्यक्त्व का ध्याता गृही । दुष्टाष्ट कर्मों को दहे सम्यक्त्व परिणत जीव ही ।। ८७ ।। मुक्ति गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का ।
यह जान लो हे भव्यजन ! इससे अधिक अब कहें क्या ।। ८८ ।। वे धन्य हैं सुकृतार्थ हैं वे शूर नर पण्डित वही । दुःस्वप्न में सम्यक्त्व को जिनने मलीन किया नहीं ।। ८९ ।। सब दोष विरहित देव अर हिंसारहित जिनधर्म में । निर्ग्रन्थ गुरु के वचन में श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।। ९० ।। यथाजातस्वरूप संयत सर्व संग विमुक्त जो । पर की अपेक्षा रहित लिंग जो मानते समदृष्टि वे ।। ९९ ।। जो लाज-भय से नमें कुत्सित लिंग कुत्सित देव को । और सेवें धर्म कुत्सित जीव मिथ्यादृष्टि वे ।। ९२ ।। अरे रागी देवता अर स्वपरपेक्षा लिंगधर । व असंयत की वंदना न करें सम्यग्दृष्टिजन ।। ९३ ।। जिनदेव देशित धर्म की श्रद्धा करें सद्दृष्टिजन । विपरीतता धारण करें बस सभी मिथ्यादृष्टिजन ।। ९४ ।। अरे मिथ्यादृष्टिजन इस सुखरहित संसार में । प्रचुर जन्म-जरा-मरण के दुख हजारों भोगते ।। ९५ ।। जानकर सम्यक्त्व के गुण दोष मिथ्याभाव के । जो रुचे वह ही करो अधिक प्रलाप से है लाभ क्या ।। ९६ ।। छोड़ा परिग्रह बाह्य मिथ्याभाव को नहिं छोड़ते । वे मौन ध्यान धरें परन्तु आतमा नहीं जानते ।। ९७ ।। मूलगुण उच्छेद बाह्य क्रिया करें जो साधुजन । हैं विराधक जिनलिंग के वे मुक्ति-सुख पाते नहीं । । ९८ ।। आत्मज्ञान बिना विविध- विध विविध क्रिया-कलाप सब । और जप-तप पद्म-आसन क्या करेंगे आत्महित ।। ९९ ।।
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