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अध्यात्मनवनीत बस एक भव का नाश हो इस विषम विष के योग से । पर विषयविष से ग्रसितजन चिरकाल भववन में भ्रमें ।।२२।। अरे विषयासक्त जन नर और तिर्यग् योनि में । दुःख सहें यद्यपि देव हों पर दुःखी हों दुर्भाग्य से ।।२३।।
अरे कुछ जाता नहीं तुष उड़ाने से जिसतरह। विषय सुख को उड़ाने से शीलगुण उड़ता नहीं ।।२४।। गोल हों गोलार्द्ध हों सुविशाल हों इस देह के । सब अंग किन्तु सभी में यह शील उत्तम अंग है ।।२५।। भव-भव भ्रमें अरहट घटीसम विषयलोलुप मूढजन । साथ में वे भी भ्रमें जो रहे उनके संग में ।।२६ ।। इन्द्रिय विषय के संग पढ़ जो कर्म बाँधे स्वयं ही । सत्पुरुष उनको खपावे व्रत-शील-संयमभाव से ।।२७।। ज्यों रत्नमंडित उदधि शोभे नीर से बस उसतरह । विनयादि हों पर आतमा निर्वाण पाता शील से ।।२८।। श्वान गर्दभ गाय पशु अर नारियों को मोक्ष ना । पुरुषार्थ चौथा मोक्ष तो बस पुरुष को ही प्राप्त हो ।।२९।। यदि विषयलोलुप ज्ञानियों को मोक्ष हो तो बताओ। दशपूर्वधारी सात्यकीसुत नरकगति में क्यों गया ।।३०।। यदि शील बिन भी ज्ञान निर्मल ज्ञानियों ने कहा तो। दशपूर्वधारी रूद्र का भी भाव निर्मल क्यों न हो ।।३१।। यदि विषयविरक्त हो तो वेदना जो नरकगत । वह भूलकर जिनपद लहे यह बात जिनवर ने कही ।।३२।। अरे! जिसमें अतीन्द्रिय सुख ज्ञान का भण्डार है । वह मोक्ष केवल शील से हो प्राप्त - यह जिनवर कहें।।३३।। ये ज्ञान दर्शन वीर्य तप सम्यक्त्व पंचाचार मिल । जिम आग ईंधन जलावे तैसे जलावें कर्म को ।।३४ ।।
अष्टपाहुड़: शीलपाहुड़ पद्यानुवाद
१९९ जो जितेन्द्रिय धीर विषय विरक्त तपसी शीलयुत । वे अष्ट कर्मों से रहित हो सिद्धगति को प्राप्त हों ।।३५।। जिस श्रमण का यह जन्मतरु सर्वांग सुन्दर शीलयुत । उस महात्मन् श्रमण का यश जगत में है फैलता ।।३६।। ज्ञानध्यानरु योगदर्शन शक्ति के अनुसार हैं। पर रत्नत्रय की प्राप्ति तो सम्यक्त्व से ही जानना ।।३७।। जो शील से सम्पन्न विषय-विरक्त एवं धीर हैं । वे जिनवचन के सारग्राही सिद्ध सुख को प्राप्त हो ।।३८।। सुख-दुख विवर्जित शुद्धमन अर कर्मरज से रहित जो। वह क्षीणकर्मा गुणमयी प्रकटित हुई आराधना ।।३९।। विषय से वैराग्य अर्हतभक्ति सम्यक्दर्श से । अर शील से संयुक्त ही हो ज्ञान की आराधना ।।४०।। पूरण हुआ आनन्द से श्रावण सुदी एकादशी। को पद्यमय अनुवाद यह सन् दो सहस दो ईसवी ।।
अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये सब हैं क्या ? आखिर एक आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं न ? एक निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न हुई अवस्थाएँ हैं न ? तो फिर हम इनकी शरण में क्यों जावें, हम तो उस भगवान-आत्मा की ही शरण में जाते हैं, जिसकी ये अवस्थाएँ हैं, जिसके आश्रय से ये अवस्थायें उत्पन्न हुई हैं। सर्वाधिक महान, सर्वाधिक उपयोगी, ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय एवं परमशुद्ध-निश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेय तो निज भगवान आत्मा ही है, उसकी शरण में जाने से ही मुक्ति के मार्ग का आरंभ होता है, मुक्तिमार्ग में गमन होता है और मुक्तिमहल में पहुँचना संभव होता है।
- आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-१९५