SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं । मैं हूँ प्रखण्ड चिपिण्ड चण्ड', पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ।। यह धूप नहीं, जड-कर्मों की रज, आज उड़ाने मैं पाया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं पाया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम् नि। फल शुभ कर्मों का फल विषय-भोग, भोगों में मानस रमा रहा । नित नई लालसायें जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा ।। रागादि विभाव किये जितने, आकुलता उनका फल पाया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् नि। __ अर्घ जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों कीपहनी, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभी धूपायन की फैली, शुभकर्मों का सब फल पाया । आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ । सुख नहीं विषय भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुअा ।। जल से फल तक का वैभव यह , मैं आज त्यागने हूँ आया । होकर निराश सब जग भर से , अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घपदप्राप्तये अर्घम् नि.। १. तेजस्वी २. सुगंध। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008327
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size342 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy