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मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं । मैं हूँ प्रखण्ड चिपिण्ड चण्ड', पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ।। यह धूप नहीं, जड-कर्मों की रज, आज उड़ाने मैं पाया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं पाया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम् नि।
फल शुभ कर्मों का फल विषय-भोग, भोगों में मानस रमा रहा । नित नई लालसायें जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा ।। रागादि विभाव किये जितने, आकुलता उनका फल पाया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् नि।
__ अर्घ जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों कीपहनी, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभी धूपायन की फैली, शुभकर्मों का सब फल पाया । आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ । सुख नहीं विषय भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुअा ।। जल से फल तक का वैभव यह , मैं आज त्यागने हूँ आया । होकर निराश सब जग भर से , अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घपदप्राप्तये अर्घम् नि.।
१. तेजस्वी २. सुगंध।
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