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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अक्षत सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर, तुम ही प्रखण्ड अविनाशी हो । तुम निराकार अविचल निर्मल, स्वाधीन सफल संन्यासी हो ।। ले शालिकणों का अवलंबन, अक्षयपद! तुमको अपनाया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतम् नि । पुष्प जो शत्रु जगत का प्रबल काम, तुमने प्रभुवर उसको जाता । हो हार जगत के वैरी की, क्यों नहिं आनन्द बढ़े सब का ।। प्रमुदित मन विकसित सुमन नाथ, मनसिज' को ठुकराने आया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम् नि। नैवेद्य मैं समझ रहा था अब तक प्रभु, भोजन से जीवन चलता है । भोजन बिन नरकों में जीवन, भर पेट मनुज क्यों मरता है ।। तुम भोजन बिन अक्षय सुखमय, यह समझ त्यागने हूँ आया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवैद्यं नि.। दीप आलोक ज्ञान का कारण है, इन्द्रिय से ज्ञान उपजता है ।। यह मान रहा था, पर क्यों कर, जड चेतन सर्जन करता है ।।* मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी, यह भेदज्ञान पा हरषाया । होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपम् निः। 'कामदेव। २ प्रकाश ३ उत्पन्न करना। *कुछ मत वाले प्रकाश को ज्ञान का कारण और इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं, पर प्रकाश और इन्द्रियाँ अचेतन हैं, उनसे चेतन ज्ञान की उत्पत्ति कैसे जो सकती है ? Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008327
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size342 KB
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