________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
उक्त प्रश्न के उत्तर में आगे लिखते हैं -
रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य ।
प्रास्त्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ।। २२० ।। रत्नत्रय धर्म निर्वाण का ही कारण है, अन्य स्वर्गादिक का नहीं। मुनिवरों को जो स्वर्गादिक के कारण पुण्य का प्रास्त्रव होता है, उसमें शुभोपयोग का ही अपराध है।
शंकाकार - उन मुनिराजों के रत्नत्रय भी तो था, फिर उन्हें बंध क्यों हुआ ?
प्रवचनकार - जितने अंशों में रत्नत्रय है, उतने अंशों में प्रबंध है। जितने अंशों में रागादिक है, उतने अंशों में बंध है। कहा भी है -
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।। २१२ ।। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।। २१३।। येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति ।।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।। २१४ ।। इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, उस अंश (पर्याय) से बंध नहीं है तथा जिस अंश से राग है, उस अंश से बंध होता है। जित अंश से इसके ज्ञान है, उस अंश से बंध नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंश से बंध होता है। जिस अंश से इसके चारित्र है, उस अंश से बंध नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंश से बंध होता है।
अतः यदि हमें बंध का प्रभाव करना है अर्थात् दुःख मेटना है तो रत्नत्रयरूप परिणमन करना चाहिए। यही एक मात्र सांसारिक दुःखों से छूटने के लिए सच्चा मुक्ति का मार्ग है। प्रश्न -
१. मुक्ति क्या है और मुक्ति का मार्ग ( मोक्षमार्ग) किसे कहते हैं ? २. निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र की परिभाषाएँ
दीजिए। ३. सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का उपाय क्या है ? ४. संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की परिभाषाएँ दीजिए। ५. रत्नत्रय स्वर्गादिक का कारण क्यों नही है ? सतर्क उत्तर दीजिये।
३२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com