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करना ही सम्यग्दर्शन है। इसे प्राप्त करने का नित्य प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि वह आत्मरूप ही है ।
हमें सबसे पहिले सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए क्योंकि इसके प्राप्त किये बिना मोक्षमार्ग का आरम्भ ही नहीं होता है। कहा भी हैंतत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिल यत्नेन ।
तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।। २१।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों में सबसे पहिले सम्यग्दर्शन को पूर्ण प्रयत्न करके प्राप्त करना चाहिए क्योंकि इसके होने पर, ज्ञान सम्यग्ज्ञानरूप और चारित्र सम्यक्चारित्ररूप परिणत होता है।
सम्यग्दर्शन के बिना समस्त ज्ञान अज्ञान और समस्त महाव्रतादिरूप शुभाचरण मिथ्याचारित्ररूप ही रहता है।
मुमुक्षु - यह सम्यग्दर्शन प्राप्त कैसे होता है ?
प्रवचनकार सर्वप्रथम तत्त्वाभ्यास से सप्त तत्त्व का यथार्थ स्वरूप समझने का तथा परपदार्थ और परभावों में परबुद्धि और उनसे भिन्न अपने आत्मा में आत्मबुद्धिपूर्वक त्रिकाली आत्मा के सन्मुख होकर प्रात्मानुभूति प्राप्त करने का उद्यम करना ही सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का उपाय है।
प्रश्नकार और सम्यग्ज्ञान.........?
प्रवचनकार
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कर्त्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु ।
संशय विपर्ययानध्यवसाय विविक्तमात्मरुपं तत् ।। ३५।।
संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित एवं अनेकान्तात्मक प्रयोजनभूत तत्त्व की सही जानकारी ही सम्यग्ज्ञान है। इस सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का भी सदा प्रयत्न करना चाहिए ।
जिज्ञासु - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?
प्रवचनकार परस्पर विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे - शुभराग पुण्य है या धर्म अथवा यह सीप है या चांदी । विपर्यय विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे-शुभराग को धर्म मानना, सीप को चांदी जान लेना।
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