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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ___ पाँच अणुव्रत १. अहिंसाणुव्रत - हिंसाभाव के स्थूल रूप में त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं। इसे समझने के लिए पहिले हिंसा को समझना आवश्यक है। कषायभाव के उत्पन्न होने पर आत्मा के उपयोग की शुद्धता (शुद्धोपयोग )का घात होना भावहिंसा है और उक्त कषायभाव निमित्त है जिसमें ऐसे अपने और पराये द्रव्यप्राणों का घात होना द्रव्यहिंसा है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक ग्रंथ में लिखा है - “आत्मा में रागादि दोषों का उत्पन्न होना ही हिंसा है तथा उनका उत्पन्न न होना ही अहिंसा है। यदि कोई व्यक्ति राग-द्वेषादि भाव न करके, योग्यतम आचरण करे तथा सावधानी रखने पर भी यदि किसी जीव का घात हो जाये, तो वह हिंसा नहीं है। इसके विपरीत कोई जीव अन्तरंग में कषायभाव रखे तथा वाह्य में भी असावधान रहे पर उसके निमित्त से किसी जीव का घात न भी हुआ हो तो भी वह हिंसक है। सारांश यह है कि हिंसा और अहिंसा का निर्णय प्राणी के मरने या न मरने से नहीं, रागादि भावों की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से है। निमित्त भेद से हिंसा चार प्रकार की होती है :(१) संकल्पी हिंसा, (२) उद्योगी हिंसा (३) प्रारम्भी हिंसा (३) विरोधी हिंसा केवल निर्दय परिणाम ही हेतु है जिसमें ऐसे संकल्प (इरादा) पूर्वक किया गया प्राणघात ही संकल्पी हिंसा है। व्यापारादि कार्यों में तथा गृहस्थी के प्रारंभादि कार्यों में सावधानी वर्तते हुए भी जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी और आरंभी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन आदि पर किए गये आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा विरोधी हिंसा है। व्रती श्रावक उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में संकल्पी हिंसा का तो सर्वथा त्यागी होता है अर्थात् सहज रूप से उसके इस प्रकार के भाव ही उत्पन्न नहीं होते हैं। अन्य तीनों प्रकार की हिंसा से भी यथासाध्य बचने का अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४ ।। २३ Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008327
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size342 KB
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