________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल - रवि जगमग करता है। दर्शनबल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अरहन्त अवस्था है ।। यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निज गुणका अर्घ बनाऊँगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अरहन्त अवस्था पाऊँगा ।।९।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तवन
भव वन में जी भर घूम चुका, कण-कण को जी भर भर देखा। मृग- सम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा । । भावनायें
१०
अनित्य- मूंठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब प्रशाएँ । तन-जीवन-यौवन-अस्थिर हैं, क्षणभंगुर पल में मुरझाएँ । । अशरण– सम्राट महा-बल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या । अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ।। संसार- संसार महा दुःख - सागर के प्रभु दुखमय सुख ग्राभासों में। मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन कामिनि प्रासादों में।। एकत्व- मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते । तन- धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते ।। अन्यत्व- मेरे न हुए ये, मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला 1 निज में पर से अन्यत्व" लिए, निज समरस पीने वाला || प्रशुचि - जिसके श्रृंगारों मे मेरा यह, महँगा जीवन घुल जाता । अत्यन्त अशुचि ं जड़ काया से, चेतन का कैसा नाता ।। आस्स्रव - दिन रात शुभाशुभ भावों में, मानस" वाणी और काया से, आस्त्रव
इस
मेरा
व्यापार चला करता ।
का द्वार खुला रहता ।।
१. प्रगट होता है, शोभित होता है । २. केवलज्ञानरूपी सूर्य । ३. अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य। ४. निजस्वभाव ( गुणों) की साधना करूगाँ। ५. मृग के समान। ६.रेगिस्तान में प्यासा हिरण बालू की सफेदी को जल समझ दौड़-धूप करता है पर उसकी प्यास नहीं बुझती उसको मृगतृष्णा कहते हैं, उसी प्रकार यह आत्मा भोगों में सुख खोजता रहा पर मिला नहीं । ७. स्त्री । ८. महलों में । ९. अकेला । १०. अकेलापन । ११. भिन्नपना। १२. समतारूपी रस । १३. बर्बाद हो जाता है । १४. अपवित्र । १५. मन।
६
Please inform us of any errors on
[email protected]