SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दीप जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैने उजियारा। झंझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा।। अतएव प्रभो! यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ। तेरी अंतर लौ से निज अन्तर, दीप जलाने आया हूँ।। ६।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अज्ञानअंधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धूप जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी। मैं राग द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी।। यों भाव-करम या भाव-मरण', सदियों से करता आता हूँ। निज अनुपम गंध-अनल से प्रभु! पर-गंध जलाने आया हूँ।। ७।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो विभावपरिणतिविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। फल जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। मैं आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ।। मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी। यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी।। ८ ।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षपदप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। अर्घ क्षण भर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल' को धो देता है; काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनंद अमृत पीता है। १. वायु का वेग या तूफान। २. अंधकार ३. केवलज्ञानरूपी दीपक। ४. झूठी मान्यता। ५-६. राग-द्वेष-मोह रूप विकारी भाव ही भाव कर्म और भाव मरण हैं। ७. सेंकड़ों वर्ष। ८. अग्नि ९. पर में एकत्त्व बुध्धिरूपी गंध। १०. सफल । ११. मिथ्यादर्शनरूपी मैल । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008325
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1997
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size719 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy