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संवर शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल।
शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल ।। निर्जरा फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें।
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें।। लोक हम छोड़ चले यह लोक तभी लोकांत विराजें क्षण में जा।
निज लोक हमारा वासा हो, शोकांत बनें फिर हमको क्या ।। बोधिदुर्लभ जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो, दुर्नयतम सत्वर टल जावे।।
बस ज्ञाता दृष्टा" रह जाऊँ, मद मत्सर मोह विनस जावे। धर्म चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी।
जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी।। चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जावे। मुरझाई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे।। सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला।। तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रियसुख की ही अभिलाषा। अब तक न समझ ही पाया प्रभु, सच्चे सुख की भी परिभाषा।। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे। अतएव झुके तव-चरणों में, जग के माणिक-मोती सारे।। स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते है। उस पावन नौका पर लाखों प्राणी, भव-वारिधि तिरते हैं।।
१. हृदय २. सम्यग्दर्शन। ३. आत्मशक्ति। ४. झरने। ५. मुक्ति में। ६. आत्मस्वभाव ही निज लोक है। ७. हमारे सभी शोकों का अन्त होना। ८. सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र। ९. खोटे नयों रूपी अंधकार। १०. शीघ्र। ११. ज्ञानदर्शनमय। १२. अभिमान। १३. डाह। १४. अग्नि। १५. सुनय १६. संसाररूपी समुद्र।
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