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प्रश्न -
१. जीव और प्रजीव तत्त्व के सम्बन्ध में इस जीव ने किस प्रकार की भूल की
है ?
२.
आधार
उपयोग रूप, चिन्मूरत बिनमूरत अनूप। काल, इनतें न्यारी है जीव चाल ।
मैं
चेतन को पुद्गल नभ धर्म अधर्म ताको न जान विपरीत मान, करि करें देह में निज पिछान। मैं सुखी - दुःखी रंक - राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। मेरे सुत-तिय मैं सबल - दीन, बेरूप - सुभग मूरख - प्रवीन। तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रकट जे दुःख दैन, तिनहीं को सेवत गिनत चैन । शुभ - अशुभ बंध के फल मँझार, रति- प्ररति करें निजपद विसार । आतम-हित हेतु विराग - ज्ञान, ते लखेँ आपको कष्टदान । रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय। (छह: ढ़ाला, दूसरी ढाल, छन्द २ से ७ तक )
४.
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३.
' तत्त्वज्ञान प्राप्त करना कष्टकर हैं", क्या यह बात सही है? यदि नहीं, तो क्यों ?
५.
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हम शुभ- भाव करेंगे तो सुखी होंगे”, ऐसा मानने में किस तत्त्व सम्बन्धी भूल हुई ?
“जैसा सुख हमें है वैसा ही उससे कई गुणा मुक्त जीवों का हैं मानने में क्या बाधा है ?
"
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ऐसा
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यदि परस्पर प्रेम ( राग ) करोगे तो आनन्द में रहोगे", क्या यह मान्यता ठीक है?