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प्रबोध – झूठ तो अज्ञानता से बोला जाता है। जब वह सब कुछ जानता है तो
फिर उसकी वाणी सच्ची ही होगी तथा उसे जब राग-द्वेष नहीं तो
वह बुरी बात क्यों कहेगा, अतः उसका उपदेश अच्छा भी होगा। सुबोध – देव तो समझा पर शास्त्र किसे कहते हैं ? प्रबोध – उसी देव की वाणी को शास्त्र कहते हैं। वह वीतराग है, अतः उसकी
वाणी भी वीतरागता की पोषक होती है। राग को धर्म बताये वह वीतराग की वाणी नहीं। उसकी वाणी में तत्त्व का उपदेश आता है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें कहीं भी तत्त्व का विरोध नहीं
आता है। सुबोध – इसके पढ़ने से लाभ क्या है ? प्रबोध - जीव खोटे रास्ते चलने से बच जाता है और उसे सही रास्ता प्राप्त
हो जाता है। सुबोध – ठीक रहा। देव और शास्त्र तो तुमने समझा दिया और गुरुजी तो
अपने मास्टर साहब हैं ही। प्रबोध – पगले! मास्टर साहब तो विद्यागुरु हैं। उनका भी आदर करना चाहिए।
पर जिन गुरु की हम पूजा करते हैं। वे तो नग्न दिगम्बर साधु होते हैं। सुबोध – अच्छा तो मुनिराज को गुरु कहते हैं यह क्यों नहीं कहते ? सीधी सी
बात है, जो नग्न रहते हों वे गुरु कहलाते हैं। प्रबोध - तुम फिर भी नहीं समझे। गुरु नग्न रहते हैं यह तो सत्य है, पर
नग्न रहने मात्र से कोई गुरु नहीं हो जाता। उनमें और भी बहुत सी
अच्छी बातें होती हैं। वे भगवान की वाणी के मर्म को जानते हैं। सुबोध – अच्छा और कौन-कौन सी बातें उनमें होती हैं ? प्रबोध - वे सदा आत्म-ध्यान, स्वाध्याय में लीन रहते हैं। सर्व प्रकार के
प्रारम्भ-परिग्रह से सर्वथा रहित होते हैं। विषय-भोगों की लालसा
उनमें लेशमात्र भी नहीं होती। ऐसे तपस्वी साधुओं को गुरु कहते हैं। सुबोध- वे ज्ञानी भी होते होंगे ?
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