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देव-शास्त्र-गुरु सुबोध – क्यों भाई, इतने सुबह ही सन्यासी बने कहाँ जा रहे हो ? प्रबोध – पूजन करने जा रहा हूँ। आज चतुर्दशी है न! मैं तो प्रत्येक अष्टमी
और चतुर्दशी को पूजन अवश्य करता हूँ। सुबोध – क्यों जी! किसकी पूजन करते हो तुम? प्रबोध – देव , शास्त्र और गुरु की पूजन करता हूँ। सुबोध – किस देवता की? प्रबोध - जैन धर्म में व्यक्ति की मुख्यता नहीं है। वह व्यक्ति के स्थान पर गुणों
की पूजा में विश्वास रखता है। सुबोध – अच्छा तो देव में कौन-कौन से गुण होने चाहिए ? प्रबोध - सच्चा देव वही है जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो। जो
किसी से न तो राग ही करता हो और न द्वेष, वही वीतरागी कहलाता है। वीतरागी के जन्म-मरण आदि १८ दोष नहीं होते, उसे भूख-प्यास भी नहीं लगती; समझ लो उसने समस्त इच्छाओं पर ही
विजय पा ली है। सुबोध – वीतरागी तो समझा पर सर्वज्ञता क्या चीज है ? प्रबोध - जो सब कुछ जानता है, वही सर्वज्ञ है। जिसके ज्ञान का पूर्ण
विकास हो गया है, जो तीन लोक की सब बातें-जो भूतकाल में हो गई, वर्तमान में हो रही हैं और भविष्य में होंगी-उन सब बातों को
एक साथ जानता हो, वही सर्वज्ञ है। सुबोध – अच्छा तो बात यह रही कि जो राग-द्वेष ( पक्षपात) रहित हो और
पूर्ण ज्ञानी हो, वही सच्चा देव है। प्रबोध – हाँ! बात तो यही है; वह जो भी उपदेश देगा वह सच्चा और अच्छा
होगा। उसका उपदेश हित करने वाला होने से ही उसे हितोपदेशी
कहा जाता है। सुबोध – उसका उपदेश सच्चा और अच्छा क्यों होगा ?
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