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" वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दू लविक्रीड़ितम्।” ( “हे राजन् ! मैं वाद के लिये सिंह की तरह विचरण कर रहा हूँ।") ___“राजन् यस्यास्ति शक्तिःस वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी।” ( “ मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ। जिसकी शक्ति हो मेरे सामने बोले ।")
आपके परवर्ती आचार्यों ने आपका स्मरण बड़े ही सन्मान के साथ किया है। आपकी आद्य-स्तुतिकार के रूप में प्रसिद्धि है। आपने स्तोत्र-साहित्य को प्रौढ़ता प्रदान की है। आपकी स्तुतियों में बड़े-बड़े गंभीर न्याय भरे हुए हैं।
आपने आप्तमीमांसा, तत्त्वानुशासन, युक्त्यनुशासन, स्वयंभू स्तोत्र, जिनस्तुति शतक, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, प्राकृत व्याकरण, प्रमाण पदार्थ, कर्म प्राभृत टीका और गंधहस्ति महाभाष्य (अप्राप्य ) नामक ग्रंथों की रचना की है।
प्रस्तुत ग्रंश रत्नकरण्ड श्रावकाचार के प्रथम अध्याय के आधार पर लिखा गया है।
आधार-रत्नकरण्ड श्रावकाचार देव की परिभाषा
आप्तेनोछिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।। ५।। क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः ।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ।।६।। शास्त्र की परिभाषा
आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य,- मदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत-सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।९।। गुरु की परिभाषा
विषयाशावशातीतो, निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। १०।।
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