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कर्म चामुण्डराय - महाराज! यह आत्मा दुःखी क्यों है ? आत्मा का हित क्या है ? कृपा कर बताइये।
आचार्य नेमिचन्द्र - आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह प्रात्मा के प्राश्रय से ही प्राप्त किया जा सकता है। पर यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेष रूप विकारी भावों को करता है, अतः दुःखी है।
चामुण्डराय - हमने तो सुना है कि दुःख का कारण कर्म है।
आचार्य नेमिचन्द्र - नहीं भाई! जब यह आत्मा अपने को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेष भाव रूप विकारी परिणमन करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित्त कहा जाता है। कर्म थोड़े ही जबरदस्ती आत्मा को विकार कराते हैं।
चामुण्डराय - यह निमित्त क्या होता है ?
आचार्य नेमिचन्द्र - जब पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणमे, तब कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके उसे निमित्तकारण कहते हैं। अतः जब आत्मा स्वयं अपनी भूल से विकारादि रूप (दुःखादि रूप) परिणमे, तब उसमें कर्म को निमित्त कहा जाता है।
चामुण्डराय - यह तो ठीक है कि यह आत्मा अपनी भूल से स्वयं दुःखी है, ज्ञानावरणादि कर्मों के कारण नहीं। पर वह भूल क्या है ? ।
आचार्य नेमिचन्द्र - अपने को भूलकर पर में इष्ट और अनिष्ट कल्पना करके मोह-राग-द्वेष रूप भाव-कर्म (विभाव भाव रूप परिणमन) करना ही आत्मा की भूल है।
चामुण्डराय - भाव-कर्म क्या होता है ? __आचार्य नेमिचन्द्र - कर्म के उदय में यह जीव मोह-राग-द्वेष रूपी विकारी भाव रूप होता है, उन्हें भाव-कर्म कहते हैं और उन मोह-राग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा (कर्मरज) कर्मरूप परिणमित होकर प्रात्मा से सम्बद्ध हो जाती हैं, उन्हें द्रव्य-कर्म कहते हैं।
चामुण्डराय - तो कर्मबंध के निमित्त, आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोहराग-द्वेष भाव तो भाव-कर्म हैं और कार्माण वर्गणा का कर्मरूप परिणमित रजपिण्ड द्रव्य-कर्म ?
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