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पाठ ५
कर्म
सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य
( व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ) जह चक्केण य चक्की, छक्खंडं साहियं अविऽघेण।
तह मइ चक्केण मया, छक्खंडं साहियं सम्म।। “ जिस प्रकार सुदर्शनचक्र के द्वारा चक्रवर्ती छह खंडों को साधता ( जीत लेता) है, उसी प्रकार मैंनें (नेमिचन्द्र ने) अपने बुद्धिरूपी चक्र से षट्खण्डागमरूप महान् सिद्धान्त को साधा है।" अतः वे 'सिद्धान्त-चक्रवर्ती' कहलाए। ये प्रसिद्ध जैन राजा चामुण्डराय के समकालीन थे और चामुण्डराय का समय ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध हैं, अतः आचार्य नेमिचन्द्र भी इसी समय भारत-भूमि को अलंकृत कर रहे थे।
ये कोई साधारण विद्वान् नहीं थे; इनके द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि उपलब्ध ग्रन्थ उनकी असाधारण विद्वत्ता और सिद्धान्तचक्रवर्ती' पदवी को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं।
इन्होंने चामुण्डराय के आग्रह पर सिद्धान्त ग्रन्थों का सार लेकर गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की है, जिसके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामक दो महा अधिकार हैं। इनका दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है।
इस ग्रन्थ पर मुख्यःत टीकाएँ उपलब्ध हैं:(१) अभयचंद्राचार्य की संस्कृत टीका ‘मंदप्रबोधिका'। (२) केशववर्णी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ी टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका'। (३) नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका'। (४) आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी की भाषाटीका ‘सम्यग्ज्ञानचंद्रिका'।
यह पाठ गोम्मटसार कर्मकाण्ड के आधार पर लिखा गया है। १ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३९७। २ ये नेमिचंद्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्ती, नेमिचंद्राचार्य से भिन्न हैं।
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