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शशि शांतिकरन तपहरन हेत।
स्वयमेव तथा तुम कुशल देत।। पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय।
___ त्यों तुम अनुभवतें भव नशाय ।।१६ ।। त्रिभुवन तिहुँकाल मँझार कोय।
नहि तुम बिन निज सुखदाय होय।। मो उर यह निश्चय भयो आज। दुख-जलधि उतारन तुम जहाज ।।१७।।
दोहा तुम गुणगणमणि गणपति,
गणत न पावहिं पार।। 'दौल' स्वल्पमति किम कहै,
न त्रियोग सँभार ।।१८।। जैसे चन्द्रमा स्वयमेव गर्मी कम करके शीतलता प्रदान करता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने से स्वयमेव ही आनन्द प्राप्त होता है। जैसे अमृत के पीने से रोग चला जाता है, उसी प्रकार आपका अनुभव करने से संसार-रूपी रोग चला जाता है ।।१६।।
तीनों लोकों में और तीनों कालों में आपके समान सुखदायक ( सन्मार्गदर्शक) और कोई नहीं है। ऐसा आज मुझे निश्चय हो गया है कि आपही दुःख-रूपी समुद्र से पार उतारने वाले जहाज हो ।।१७।।
आपके गुणों-रूपी मणियों को गिनने में गणधर देव भी समर्थ नहीं हैं, तो फिर मैं (दौलतराम) अल्पबुद्धि उनका वर्णन किस प्रकार कर सकता हूँ। अंतः मैं आपको मन, वचन और काय को सँभाल कर बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।१८।। प्रश्न - उक्त स्तुति में से कोई से २ छंद जो आपको रुचिकर लगे हों, लिखिये तथा
रुचिकर होने का कारण भी बताइये।
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