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पुण्य से जीव स्वर्ग पाता हैं और पाप से नरक पाता हैं। जो इन दोनों को छोड़ कर आत्मा को जानता हैं, वह मोक्ष को प्राप्त करता हैं।
इसी तरह का भाव प्राचार्य पूज्यपाद ने 'समाधि शतक' में व्यक्त किया हैं। कुन्दकुन्दाचार्यदेव भी इस संबंध में स्पष्ट निर्देश करते हैं :
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु।
परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।। १८१।। पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप हैं। तथा दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं हैं ऐसा आत्म-परिणाम आगम में दुःख–क्षय (मोक्ष) का कारण कहा हैं।
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ।।
मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।। ८३ ।।२। जिन शासन में कहा हैं कि व्रत, पूजा आदि पुण्य हैं और मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम धर्म हैं ।
नाटक समयसार में पुण्य-पाप को चंडालिन के युगलपुत्र (जुड़वा भाई) बताते हुए लिखा हैं कि ज्ञानीयों को दोनों में से किसी की भी अभिलाषा नहीं करना चाहिए :
जैसैं काहू चंडाली जुगल पुत्र जने तिनि,
__एक दीयो बांभनक एक घर राख्यो है । बांभन कहायौ तिनि मद्य मांस त्याग कीनौ,
___ चंडाल कहायौ तिनि मद्य मांस चाख्यो है।। तैसें एक वेदनी करमकै जुगल पुत्र,
एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्यौ है। दुहूं मांहि दोरधूप, दोऊ कर्मबंधरूप,
या ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाख्यौ है।। ३।। १. अपुण्यमव्रतैः पुण्यम् व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः।
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।।८३।। २. प्रवचनसार ३. अष्टपाहुड़ (भावपाहुड़) ४. नाटक समयसार, पुण्य-पाप एकत्वद्वार, कविवर पं. बनारसीदास
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