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सांसारिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य को भला कहा जाता हैं किन्तु मोक्षमार्ग में तो पुण्य और पाप दोनों कर्म बाधक ही हैं :मुकति कैं साधककौं बाधक करम सब,
आतमा अनादिकौ करम मांहि लुक्यौ है ।
एते पर कहै जो कि पाप बुरौ पुन्न भलौ,
सोई महा मूढ़ मोख मारगसौं चुक्यौ है ।। १३ ।।
महाकवि बनारसीदास ने कुन्दकुन्दाचार्यदेव के समयसार नामक ग्रंथराज पर आचार्य अमृतचंद्र द्वारा लिखित ग्रात्मख्याति टीका एवं कलशों के आधार पर नाटक समयसार में पुण्य-पाप संबंधी हेयोपादेय व्यवस्था की गुरु-शिष्य के संवाद के रूप में विस्तार से चर्चा की हैं, जो इस प्रकार हैं :शिष्य :
कौंऊ सिष्य कहै गुरु पांहीं, पाप पुन्न दोऊ सम नांहीं । कारन रस सुभाव फल न्यारै, एक अनिष्ट लगें इक प्यारै । । ४ । । संकलेस परिनामनि सौं पाप बंध होई,
विसुद्धसौं पुन्न बंध हेतु -भेद मानीयै । पापकैं उदै असाता ताको है कटुक स्वाद,
पुन्न उदै साता मिष्ट रस भेद जानिये ।। पाप संकलेस रूप पुन्न है विसुद्ध रूप,
दुहूं सुभाव भिन्न भेद यौं बखानियै। पापसौं कुगति होई पुन्नसौं सुगति होई,
सौ फल-भेद परतच्छि परमानियै ।। ५ ।। कोई शिष्य गुरु से कहता हैं कि पाप और पुण्य दोनों समान नहीं हैं, क्योंकि उनके कारण, रस, स्वभाव और फल भिन्न-भिन्न हैं। पाप अनिष्ट प्रतित होता हैं और पुण्य प्रिय लगता हैं।
संकलेश परिणामों से पाप बंध होता हैं और विशुद्ध परिणामों से पुण्य बंध । इस प्रकार दोनों में कारण भेद विद्यमान हैं । पाप के उदय से दुःख होता हैं, ९. वही ।
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