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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्रमण संस्कृति के प्रतिष्ठापक महान आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य-पाप दोनों को संसार का कारण बता कर उनके प्रति राग और संसर्ग करने का स्पष्ट निषेध किया है। उनका कथन उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार हैं : कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।। १४५।। सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। १४६ ।। तम्हा दु कुसीलेहिं य रायं मा कुणह मा व संसग्गं। साहीणो हि विणासो कुसील संसग्गरायेण।। १४७।। अशुभ कर्म कुशील हैं और शुभ कर्म सुशील हैं ऐसा तुम जानते हो, किन्तु वह सुशील कैसे हो सकता हैं जो शुभ कर्म (जीव को) संसार में प्रवेश कराता है ? जिस प्रकार लोखंड की बेड़ी के समान सोने की बेड़ी भी पुरुष को बांधती हैं उसी प्रकार अशुभ (पाप) कर्म के समान शुभ (पुण्य) कर्म भी जीव को बांधता हैं। इसलिए इन दोनों कुशीलों ( पुण्य-पाप) के साथ राग व संसर्ग मत करो, क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग व राग करने से स्वाधीनता का नाश होता हैं। शुभ भावों से पुण्य कर्म का बंध होता हैं और अशुभ भावों से पाप कर्म का बंध होता हैं। बंध चाहे पाप का हो या पुण्य का , वह हैं तो आखिर बंध ही, उससे आत्मा बंधता ही हैं, मुक्त नहीं होता। मुक्त तो शुभाशुभ भावों के प्रभाव से अर्थात् शुद्ध भाव (वीतराग भाव) से ही होता हैं। अतः मुक्ति के मार्ग में पुण्य और पाप का स्थान प्रभावात्मक ही हैं । इस संदर्भ में 'योगसार' में श्री योगीन्दुदेव लिखते हैं : पुण्णि पावइ सग्ग जिउ पावएँ णरय-णिवासु। वे छंडिवि अप्पा मुणई तो लब्भई सिववासु।। ३२।। १७ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008320
Book TitleTattvagyan Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size394 KB
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