________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पाठ ३
पुण्य और पाप
समस्त भारतीय दर्शनो में आत्मा-परमात्मा, बंध - मोक्ष और लोक-परलोक के साथ पुण्य-पाप भी बहुचर्चित विषय रहा हैं । पुण्य-पाप किसे कहते हैं और उनका मुक्ति के मार्ग में क्या स्थान हैं ? इस विषय पर जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मींमासा करना ही यहाँ विचारणीय विषय हैं।
आचार्य कुंदकुंद से लेकर आज तक जैन साहित्य के हर युग में पुण्य-पाप मीमांसा होती रही हैं। आज भी यह चर्चा का मुख्य विषय हैं। विवाद पुण्यपाप की परिभाषा के संबंध में न होकर मुक्ति-मार्ग में उनके स्थान को लेकर हैं।
पुण्य और पाप दोनों आत्मा की विकारी अन्तर्वृत्तियाँ हैं । देवपूजा, गुरुउपासना, दया, दान, व्रत, शील, संयमादि के प्रशस्त परिणाम ( शुभ भाव ) पुण्य भाव कहे जाते हैं और इनका फल अनुकूल संयोगों की प्राप्ति हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह - संचय आदि के भाव पाप भाव हैं और इनका फल प्रतिकूलताएँ हैं।
सामान्य जन पुण्य को भला और पाप को बुरा मानते हैं, क्योंकि मुख्यतः पुण्य से मनुष्य व देव गति की प्राप्ति होती हैं और पाप से नरक व तिर्यच गति की। पर उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि चारों गतियाँ संसार ही हैं, दुःख - रूप ही हैं। चारों गतियों में दुःख ही दुःख हैं, सुख किसी भी गति में नहीं हैं। पंडित दौलतरामजी ने छहढाला की पहली ढाल में चारों गतियों में दुःख ही दुःख बताया हैं । इस प्रकार वैराग्यभावना में साफ साफ लिखा हैं :
जो संसार विषै सुख हो तो, तीर्थंकर कयों त्यागेँ । काहे को शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागें ।।
१६
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com