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रखता हुअा असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि पापारंभ करने के विकल्पों का त्याग कर देने से सभी प्रकार के व्यापार का त्याग कर देता है।
९. परिग्रहत्याग प्रतिमा जो दशधा परिग्रह को त्यागी, सुख संतोष सहित वैरागी।
समरस संचित किंचित ग्राही, सो श्रावक ना प्रतिमा वाही।।' नवमी प्रतिमाधारी श्रावक की शुद्धि और भी बढ़ जाती है, वह निश्चय परिग्रहत्याग प्रतिमा है। उसके साथ कषाय मंद हो जाने से प्रति आवश्यक सीमित वस्तुएँ रखकर बाकी सभी (दस) प्रकार के परिग्रहत्याग करने का शुभ भाव व बाह्य परिग्रहत्याग, व्यवहार परिग्रहत्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमाधारी का जीवन वैराग्यमय, संतोषी एवं साम्यभावधारी हो जाता है।
१०. अनुमतित्याग प्रतिमा पर कौं पापारम्भ को, जो न देइ उपदेश।
सो दशमी प्रतिमा, सहित श्रावक विगत कलेश।। इस दशमी प्रतिमाधारी श्रावक की शुद्धि पहले से भी बढ़ गई है, वह शुद्ध परिणति निश्चय प्रतिमा है। उसकी सहज (बिना हठ के) उदासीनता अर्थात् राग की मंदता इतनी बढ़ गई होती है कि अपने कुटुम्बीजनों एवं हितैषियों को भी किसी प्रकार के प्रारम्भ ( व्यापार, शादी, विवाह आदि) के सम्बन्ध में सलाह, मशविरा, अनुमति आदि नहीं देता है, यह व्यवहार प्रतिमा है। इस श्रावक को उत्तम श्रावक कहा गया है।
११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा जो सुछंद वरते तज डेरा, मठ मंडप में करै वसेरा।
उचित आहार उदंड विहारी, सो एकादश प्रतिमाधारी।। ग्यारहवीं प्रतिमा श्रावक का सर्वोत्कृष्ट अंतिम दर्जा है। ये श्रावक दो प्रकार के होते हैं - क्षुल्लक तथा ऐलक। इस प्रतिमा की उत्कृष्ट दशा ऐलक होती है। इसके आगे मुनिदशा हो जाती है। १ नाटक समयसारः बनारसीदास, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, छंद ६९ २ वही, छंद ७० ३ वही, छंद ७१
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