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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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इस संपदा पाने का फल तो दान करना ही है। करोड़ों मनुष्यों ने पहले भवों में दान नहीं दिया इसलिये आज वे घर-घर दरवाजे-दरवाजे अन्न मांगते फिरते हैं फिर भी पेट भर भोजन नहीं मिलता है, शरीर ढकने को कपड़ा नहीं मिलता है, दीन-दरिद्री होकर दूसरों की जूठन की आशा करते फिरते हैं - यह सब दान रहितता तथा कृपणता का फल है। मनष्यों व पशओं की सेवा करना-दासपना करता है तो भी पेट नहीं भर पाता है। दान किये बिना मुझे आगामी काल में सम्पत्ति नहीं प्राप्त होगी। दान में, धर्म के स्थानों में धन लगाऊँगा तो ही धन पाना सफल है। मरने के बाद सम्पदा परलोक में साथ नहीं जायेगी, जहाँ रखी है वहीं रखी रह जायेगी। इसलिये किन्हीं जीवों के उपकार में खर्च हो तो सफल है, उतनी ही और वह ही सम्पत्ति हमारी है।
ऐसे विचारों सहित सम्यग्दृष्टि सदा ही परोपकार के कार्यों में धन लगाने को तत्पर रहता है, उद्यमी रहता है। धर्मात्मा पुरुषों के तो यह संपदा ग्रहण करने योग्य ही नहीं है, मोह से अंधा कर देनेवाली है, आत्मा को भुला देनेवाली है। सम्यग्दृष्टि इसमें अपनापन ही नहीं करता है, किन्तु अभी चारित्रमोह का उदय होने से राग तो मिटा नहीं है इसलिये अन्य जीवों के उपकार में अवश्य लगाना, बहुत कष्ट से कमाई है उसे उत्तम कार्य में लगाना, छोड़कर मर जाने में अपना क्या भला होगा? ऐसा विचार करके जो पापरहित जन हैं वे निर्धन. रोगी. दःखी जनों को देखकर अवज्ञा नहीं करते हैं. धन देकर उनका दःख मिटाते हैं। धर्म में प्रवर्ताने वाले शुभ कार्यों में खर्च करवाने वाले लोगों को देखकर बड़ा आनंद मानते हैं, धर्म साधन करनेवालों के साथ शामिल होकर धन के भोगने में आनंद मानते हैं। ऐसे लोगों ने संपदा प्राप्त होने का फल लिया है, आगे परलोक में देवों की संपदा, चक्रवर्ती की संपदा भी दानी को ही प्राप्त होती है। अब जो संपत्ति में रागी हैं उन्हें संपत्ति का स्वरूप दिखानेवाला श्लोक कहते हैं :
यदि पापनिरोधोऽन्यसंपदा किं प्रयोजनम् ।
अथ पापत्रवोऽस्त्यन्यसंपदा किं प्रयोजनम् ।।२७।। अर्थ :- सम्यग्दृष्टि विचार करता है - यदि मेरे ज्ञानावरणादि अशुभ पाप प्रकृतियों का आस्रव होना रुक गया है तो अब मेरे पास जितनी संपत्ति है उससे अधिक संपत्ति प्राप्त हो जाने से मुझे क्या प्रयोजन है ? यदि मेरे उन अशुभ पाप प्रकृतियों का आस्त्रव होना चालू ही है तथा संपत्ति भी आ रही है, तो इस नई आनेवाली संपत्ति से मुझे क्या प्रयोजन है, कितना लाभ है?
भावार्थ :- इस जीव की त्यागरूप, संयमरूप प्रवृत्ति द्वारा पाप का आस्रव होना यदि रूक गया है तो अन्य जो इंद्रियों के विषयों की संपदा-राज्य ऐश्वर्य रूप संपदा हो गई, तो उस संपदा से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? आस्रव रुकने से तो निर्वाण संपदा-अहमिन्द्रलोक की संपदा प्राप्त होती है। इस खाक–धूल समान, क्लेश से भरी, क्षणभंगुर सम्पदा से क्या प्रयोजन है? यदि इस जीव के त्यागरूप. संयमरूप प्रवत्ति से पाप का आस्त्रव नहीं है तो निर्बन्ध नाम की संपदा बड़ी विभूति महालक्ष्मी है।
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