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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार धन , आज्ञा , ऐश्वर्य के मद में अंधा होकर ऐसा मानता है - इस जगत में धन ही सबसे बड़ा है। धनवान के घर बड़े-बड़े ज्ञानी, शास्त्रों के पारगामी, काव्य श्लोक बनानेवाले नित्य ही आते हैं, बड़े-बड़े ज्ञानी धनवानों के घर में स्वयं ही आकर शास्त्रों को सुनाते फिरते हैं। अनेक कला चतुराई जाननेवाले धनवान के घर नित्य ही आते हैं। पूजन करनेवाले, प्रभावना करनेवाले, भजन कहनेवाले अनेक लोग धनवान का आश्रय लेकर धनवानों को सुनाते फिरते हैं। उपवास, व्रत, बेला, तेला करनेवाले त्यागी तपस्वी धनवानों के ही घर पर भोजन करने आते हैं। मंत्र, जाप आदि भी धनवंत पुरुषों के भले होने को ही करते हैं। समस्त धर्म और समस्त गुण हमारे धन के ही आधीन हैं। इस प्रकार धन-ऐश्वर्य से अपनी आत्मा को ऊँचा मानकर कृतकृत्य समझकर धर्मात्माओं की अवज्ञा करते हैं। __ आत्मज्ञानी, परमार्थी, परमसंतोषी लोगों को तो ये गर्विष्ट पुरुष देखते ही नहीं है। जिनको चक्री की सम्पदा व इन्द्रलोक की सम्पदा भी दुखरूप दिखाई देती है, वे पुरुष धनवंतो का साथ स्वप्न में भी नहीं चाहते हैं। ____ जगत के अल्प पुण्यवाले–निर्धन लोग , गृह कुटुम्ब के पालने की चिन्ता से दुखी होकर अपना सम्मान छोड्कर धनवान के घर आते हैं; दयावान-उपकारी जानकर तथा धर्म से प्रीति और धन प्राप्त करने का फल लेनेवाला जानकर धनवान के दरवाजे पर आते हैं; परन्तु यह धनवंत धन के मद में अंधा हो जाता है जिस कारण उससे दान तो नहीं होता है, उपकार नहीं करता है, दया रहित निर्दयी हो जाता है। कोई केवल हमारा धन मत छीनो, धन मत बिगाड़ो ऐसा मानता हुआ मर करके बहुत ममता कृपणता के प्रभाव से नरकतिर्यंचगति में बहत काल तक परिभ्रमण करता है। धन के संबंध में ज्ञानी का विचार - जो धन-संपत्ति पाकर के मद रहित हैं उनके ऐसा विचार है कि – यह धन संपत्ति हमारा रूप नहीं है, हमारी नहीं है, कोई पूर्वकृत पुण्य फला है, परन्तु यह विनाशीक है। अब इस संपत्ति से किसी का उपकार करूँगा, दरिद्री लोगों का दुख मिटाऊँगा, दया करके दुखी जीवों का उपकार करूँगा, जो जिनधर्म के श्रद्धानी-ज्ञानी हैं उनकी निर्धनता का दुख मिटाकर निराकुल करूँगा। सभी लोग धनवान से आशा रखते हैं, मैं यदि निर्धन होता तो मुझसे कौन उपकार चाहता ? इसलिये जब मेरे शुभकर्म फला है तो मुझे अपने आश्रितों का भरण-पोषण करना चाहिये, बालक-वृद्ध-रोगी-अनाथ-विधवा-अशक्तों का उपकार करने से ही मेरा धन प्राप्त करना सफल है। मैं ऐसे कार्य में धन लगाऊँ जिससे जिनधर्म की परिपाटी बहुत काल तक चलती रहे, ज्ञानाभ्यास की परम्परा चलती जाये। नित्यपूजन, ध्यान, अध्ययन, तप, शील से संसार का उद्धार करने वाले कार्यों का प्रवर्तन बना रहे - यह धन पाने का फल है, लाभ है। यदि यह धन परोपकार में नहीं लगेगा तो अवश्य ही नष्ट हो जायेगा। यह सम्पदा किसी के साथ भी परलोक में गई नहीं है। बिना दान किये यह सम्पदा केवल पाप-दुर्ध्यान कराकर संसार-समुद्र में डुबो देगी। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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