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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ] [५७ यदि अन्याय, अनीति, कपट, छल, चोरी आदि करके मेरे पाप का आस्त्रव निरन्तर हो रहा है तथा कुछ और अधिक धन संपदा प्राप्त हो गई तो इससे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? शीघ्र ही मरकर अंतर्मुहूर्त में नरक का नारकी होकर पैदा हो जाऊँगा । सम्यग्दृष्टि को तो पापकर्म के आस्त्रव होने का बड़ा भय है। वह तो पाप का आस्त्रव रूक जाने को ही महासंपदा का लाभ मानता है। इस संसार की संपदा को तो पराधीन दुख देनेवाली जानकर इसमें लालसा नहीं करता है । कभी लाभांतराय - भोगांतराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है तब उसे पराधीन, विनाशीक, बंध करानेवाली जानकर उस संपदा में लिप्त नहीं होता है। वर्तमान की कुछ वेदना को शांत करने वाली मानकर उदासीनभाव से कडुवी दवा के समान ग्रहण करता है, संपदा को अपने हितरूप जानकर उसकी वांछा नहीं करता है । छह अनायतन का स्वरूप ऐसा जानना कुदेव, कुगुद्भद्द, कुशास्त्र का श्रद्धान व कुदेव की सेवा करनेवाला, कुगुरु की सेवा करनेवाला और कुशास्त्र को पढ़नेवाला - इस तरह ये छह धर्म के आयतन अर्थात् स्थान नहीं है। इनसे अपना कुछ भी भला नहीं होता, इसलिये ये छह ही अनायतन हैं। संक्षेप में इनका स्वरूप कहते हैं । :- जिसमें सर्वज्ञपना नहीं है, वीतरागपना नहीं है, जो कामी-क्रोधी, चोरों और जारों का प्रधान है, जो भोजन का इच्छुक है, मांस का भक्षक हे, लोभी है, अपनी पूजा कराने का इच्छुक है, जीवों का संहार करनेवाला है, अपने भक्तों का उपकारक तथा अभक्तों का विनाशक है, जिन्हें बहुत से मुर्ख लोग देव मानकर पूजते हैं किन्तु उनमें देवपना नहीं है, उनमें देवपने की बुद्धि करना - देव मानना मिथ्या है। वे देवत्व के आयतन नहीं है । जो व्रत - संयम रहित, अनेक पाखण्ड भेष के धारी हैं उनमें व्रत -त्याग - विद्या-अध्ययन, परिग्रह का त्याग आदि देखकर, मंत्र - यन्त्र - तन्त्र विद्या, ज्योतिष, वैद्यक, शकुन विद्या, तथा इन्द्रजाल आदि विद्याओं को देखकर अनेक मूर्ख लोगों द्वारा मानता - पूजता देखकर पाखण्डी जिनाज्ञा-बाह्य भेषियों में पूज्यपना - गुरुपना नहीं जानना । खोटे - मिथ्या शास्त्र हिंसा के पोषक जिनमें आत्महित नहीं ऐसे शास्त्र सम्यग्ज्ञान के आयतन नहीं है। कुदेव - कुगुरु-कुशास्त्रों का सेवन करने वाले, इनकी सेवा - उपासना करने से अपना कल्याण होना माननेवालों की सम्यग्दृष्टि प्रशंसा नहीं करता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का घात करनेवाले तीन मूढ़ता, आठ मद, आठ शंकादि दोष, छह अनायतन - इन पच्चीस दोषों का त्यागकर व्यवहार सम्यग्दर्शन के धारण करने पर निश्चय सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो। जिसके पच्चीस दोष रहित आत्मा का श्रद्धान भाव है, उसी के निश्चय सम्यग्दर्शन होने का नियम है। जिसके बाह्यदोष ही दूर नहीं हुए हों उसके अंतरंग शुद्ध सम्यग्दर्शन भी नहीं होता है । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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