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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अब सम्यक्त्व के भेद और उसकी उत्पत्ति कैसे होती है, वह कहते हैं - सम्यक्त्व के भेद : सम्यक्त्व तीन प्रकार का है - उपशम सम्यक्त्व १, क्षयोपशम सम्यक्त्व २, क्षायिक सम्यक्त्व ३। संसारी जीव को अनादिकाल से आठ कर्मों का बंधन है। उनमें मोहनीयकर्म के दो भेद हैं - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व; तथा चारित्र मोहनीय की चार - अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया, अनंतानुबंधी लोभ। इस प्रकार ये सात प्रकृतियाँ सम्यक्त्व का घात करनेवाली हैं। इस सात प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है, इन ही सातों प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व; और इन ही सातों प्रकृतियों के क्षयोपशम होने से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, इसका दूसरा नाम वेदक सम्यक्त्व भी है। ( इनके और भी भंग-भेद करणानुयोग के अनुसार बनते हैं।) __ अनादिमिथ्यादृष्टि जीव को पहले उपशम सम्यक्त्व ही होता है। मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्व छूटकर जो सम्यक्त्व होता है। उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। उपशमश्रेणी के प्रारंभ में क्षयोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। अब मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्व गुणस्थान से उपशम सम्यक्त्व कैसे होता है उसे श्री लब्धिसारजी शास्त्र के अनुसार कुछ लिखते हैं। सम्यक्त्व की उत्पत्ति सम्यग्दर्शन चारों ही गतियों में अनादि मिथ्यादृष्टि व सादि मिथ्यादृष्टि के उत्पन्न होता है; परन्तु संज्ञी के ही उत्पन्न होता है असंज्ञी के नहीं; पर्याप्त के ही उत्पन्न होता है अपर्याप्त के नहीं; मंदकषायी के ही उत्पन्न होता है तीव्रकषायी के नहीं; भव्य के ही उत्पन्न होता है अभव्य के नहीं; गुणदोषों का विचार सहित साकारोपयोग जो ज्ञानोपयोग युक्त के ही उत्पन्न होता है दर्शनोपयोगी के नहीं; जागृत अवस्था में ही उत्पन्न होता है निद्रा से अचेत हुए के नहीं होता है। पांचवीं करणलब्धि के उत्कृष्ट जो अनिवृत्तिकरण परिणाम उसके अंतिम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। पाँच लब्धियाँ : पाँच लब्धियों के नाम इस प्रकार हैं – क्षयोपशम लब्धि १, विशुद्धि लब्धि २, देशना लब्धि ३, प्रायोग्य लब्धि ४, करण लब्धि ५। इन पाँच लब्धियों के हुए बिना सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है। इनमें से चार लब्धियाँ तो किसी भी संसारी भव्य तथा अभव्य को भी हो जाती हैं परन्तु करणलब्धि तो जिसे सम्यक्त्व तथा चारित्र अवश्य प्राप्त होना है उसी को होती क्षयोपशम लब्धि : क्षयोपशमलब्धि के विषय में आगम में ऐसा कहा है – जिस काल में ऐसा योग आ मिले जब आठों कर्मों में से ज्ञानावरण आदि कर्मों की समस्त अप्रशस्त प्रकृतियों की अनुभागशक्ति प्रतिसमय अनन्तगुणी घटती हुई आगे क्रम से उदय में आने लगे, उस काल में क्षयोपशम लब्धि हुई कही जाती है। उत्कृष्ट अनुभाग के अंनतवें भाग के बराबर ( प्रमाण ) जो देशघाति स्पर्द्धक उनका उदय होते हुए भी, उत्कृष्ट अनुभाग का (जो शेष ) अनन्त बहुभाग के बराबर (प्रमाण ) जो Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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