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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार]
अर्थ :- जिनका मद नष्ट हो गया है ऐसे गणधर देव हैं उन्होने मद आठ प्रकार का कहा है। ज्ञान १, पूजा २, कुल ३, जाति ४, बल ५, ऋद्धि ६, तप ७, शरीर ८-इन आठ का आश्रयकर के जो मानीपना होता है उसे स्मय ( मद) कहते हैं।
भावार्थ :- ज्ञान का मद १, पूजा का मद २, कुल का मद ३, जाति का मद ४, बल का मद ५, ऋद्धि का मद ६, तप का मद ७, शरीर का मद ८। ये आठ मद सम्यग्दृष्टि के नहीं होते हैं।
ज्ञानमद :- जिसके एक भी मद हो वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? सम्यग्दृष्टि का सच्चा चिंतवन है। वह विचार करता है - हे आत्मा! तुने तो इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ ज्ञान पाया है, इसका गर्व क्यों करता है ? यह ज्ञान तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के आधीन है, विनाशीक है, इन्द्रियों के आधीन है, वात पित्त कफादि के आधीन है। इसके नष्ट होने में अधिक देर नहीं लगती है। क्यों इसका गर्व करते हो? इन्द्रियों के नष्ट होते ही ज्ञान भी नष्ट हो जाता है, वातपित्त-कफादि के घटने-बढ़ने पर क्षण मात्र में ही ज्ञान विपरीत हो जाता है, बावला हो जाता है।
यह इन्द्रियजनित ज्ञान तो शरीर के साथ ही विनश जायेगा। कई बार एकेन्द्रिय हुआ, शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्त ही नहीं हुई। एकेंद्रियों में जड़रूप पाषाण, धूल, पृथ्वीरूप होकर असंख्यात काल तक अज्ञानी रहा। कई बार विकलत्रय में हित-अहित की शिक्षा रहित हुआ। कई बार कूकर, शूकर, व्याघ्र , सर्प आदि में विपरीत ज्ञानी होकर भ्रमण किया। निगोद में अक्षर के अनंतवें भाग मात्र ज्ञान सहित हुआ। व्यंतर आदि अधम देवों में भी मिथ्यात्व के प्रभाव से आपपर नहीं जानता हुआ मरण करके , एकेंद्रिय में उत्पन्न होकर अनंतकाल तक परिभ्रमण किया है।
मनुष्यों में भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अधिकता से तीक्ष्ण ज्ञान हो जाता है तो उनमें से कितने ही मनुष्य तो नीच कार्यों में प्रवीण होकर अनेक जल के जीव, थल के जीव, आकाश में विचरण करनेवाले जीवों के मारने में, पकड़ने में, बांधने में, अनेक यंत्र-पीजरा-जाल-फांसी बनवाने में चतुराई का उपयोग करते हैं। कितने ही मनुष्य अनेक प्रकार की तलवार, बन्दूक, तोप, बाण, जहर, विष आदि बनाने की विद्या में प्रवीण होकर अपनी चतुराई के मद में उन्मत्त होकर गांव-देश आदि के विध्वंस करने में होशयार बन जाते हैं। कितने ही मनुष्य सिंह, व्याघ्र वराह आदि जीवों की शिकार करने में चतुर होते हैं।
कितने ही मनुष्य ज्ञान का अधिक क्षयोपशम पाकर दूसरे अनेक मनुष्यों का धन छीनने में, लूटने में, रास्ता चलते लोगों का धन चुराने में, हत्या करने में प्रवीण हो जाते हैं। कितने ही मनुष्य ज्ञान की तीक्ष्णता पाकर भोले जीवों का तिरस्कार करने में, झूठों को सच्चा सिद्ध कर देने में, सच्चे को झूठा सिद्ध कर देने में, धन और प्राण दोनों हरण करने में प्रवीण हो जाते हैं। कितने ही मनुष्य अपने ज्ञान की तीक्ष्णता द्वारा मनुष्यों की चुगली करने में, लुटवा देने में, धन-धरती-आजीविका आदि नष्ट करा देने में, राजा आदि द्वारा दण्ड करा देने में, मरण करा देने में प्रवीण होते हैं।
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