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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ५०] कितने ही मनुष्य लकड़ी, पत्थर, धातु, रत्न आदि की अनेक वस्तुएँ बनवाने में, चित्र, आभरण, वस्त्र, महल आदि अनेक प्रकार की रचना बना देने में प्रवीणता पाकर अभिमान के वश होकर नष्ट हो जाते हैं। कितने ही मनुष्य ज्ञान की प्रबलता पाकर अनेक श्रृगांर शास्त्र , युद्ध शास्त्र , वैद्यक शास्त्र आदि बनाकर राजाओं को प्रसन्न करते हैं। वे अनेक छन्द, अलंकार, व्याकरण विद्या, एकान्तरूप न्याय विद्या, वेद-पुराण, क्रिया-काण्ड आदि की प्ररूपणा करके, गर्विष्ट होकर आत्मज्ञान रहित होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं। कितने ही मनुष्य वीतराग धर्म को प्राप्त करके भी मिथ्यात्व के तीव्र उदय से सत्य ज्ञान-श्रद्धान को नहीं पाकर अपना अभिमान, वचन, पक्ष पुष्ट करने के लिये शास्त्र विरुद्ध मार्ग में प्रवर्तन कराकर अपने को कृतार्थ मानते हैं। इस प्रकार ज्ञान की अधिकता प्राप्त करके भी मिथ्यात्व के प्रभाव से और अधिक-अधिक बंध करके संसार में ही नष्ट होते हैं। इसलिये अब वीतरागी सम्यग्ज्ञानी गुरुओं का उपदेश पाकर ज्ञान का गर्व नहीं करो। हे आत्मन्! तेरा स्वभाव तो सकल लोकालोक को जाननेवाला केवलज्ञानरूप है। अब कर्म के क्षयोपशम से जो इंद्रियों के आधीन शास्त्रों का कुछ ज्ञान प्रकट हुआ है उसका क्यों गर्व करते हो? जैसे कोई अपने प्रबल शत्रु मंडलेश्वर राजा को बंधाकर जैल में डालकर घटिया थोड़ा-सा भोजन देकर अनेक प्रकार से कष्ट देकर रखे; कभी किसी समय थोड़ा-सा कोई मीठा भोजन भी दे देवे; तो क्या मंडलेश्वर राजा जैल में पड़ा हआ उस थोड़े से मिष्ठ भोजन को पाकर गर्व करेगा ? उसी प्रकार तुम्हारे अनंतज्ञान स्वरूप केवलज्ञान को इन कर्मों ने लूटकर शरीररूप बंदीगृह में पराधीन कर रखा है। अब इंद्रियों द्वारा कुछ ज्ञान दिया उसे पाकर क्यों गर्व करते हो? यह इंद्रियज्ञान तो विनाशीक पराधीन है, शरीर के साथ ही अवश्य नष्ट हो जायेगा। इस शरीर में भी रोग से, बुढ़ापे से, इंद्रियों की विकलता से, दुष्टों की संगति से, विषयकषायों की अधिकता से क्षण मात्र में ही इस इंद्रियज्ञान के विनाश होने में देर नहीं लगती। इस विनाशीक ज्ञान को पाकर यदि मद करोगे तो तुम्हारे सभी गुण नष्ट हो जायेंगे और तुम ज्ञान रहित होकर एकेंद्रिय आदि में जाकर पैदा हो जाओगे। इस काल में तुम कोई कविता, छन्द, चर्चा समझकर; नवीन काव्य , श्लोक, शास्त्र , छन्द, युक्ति बनाकर, तथा जिनमत के सिद्धांतों का कुछ ज्ञान पाकर मद को प्राप्त हो रहे हो सो मद करना उचित नहीं है। पूर्वकाल में हुए ज्ञानी वीतरागियों के लिये ग्रन्थों के वाक्यों को देखो। अकलंकदेव द्वारा रचित लघुत्रयी, बृहत्त्रयी, चूलिका ऐसे सात ग्रन्थ है। उन्हें समझने के लिये माणिक्यनन्दि मुनिराज ने ‘परीक्षामुख' बनाया। उसकी बड़ी टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड बारह हजार श्लोकों में प्रभाचन्द्र जी ने बनाई। लघुत्रयी के ऊपर न्यायकुमुद चंद्रोदय सोलह हजार श्लोकों में प्रभाचंद्रजी ने लिखा। तत्त्वार्थ सूत्र का गंधहस्ति महाभाष्य तो चौरासी हजार श्लोकों में लिखा गया है, जो इस समय मिलता Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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