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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्रिी रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४८] व मस्तक की रक्षा के लिये कर्णों को लम्बा करके कन्धों से जोड़ देते हैं; उन्हें देखकर सभी धातु की प्रतिमाओं के भी कर्ण कंधो से जोड़ने लगे, सो यह तो देखा-देखी चल गई। उसी प्रकार अर्हन्त की प्रतिमा के ऊपर फण का आकार बनाते हए लोगों को देखकर तत्त्व को समझे बिना फण बनाने की प्रवृत्ति चल गई। फण बना देने से प्रतिमा तो अपूज्य हो नहीं जाती क्योंकि चार प्रकार के सभी देव चारों तरफ से सदा ही भगवान की सेवा करते ही हैं। फण मण्डप करने से ही धरणेन्द्र को पूज्य मानना वह तो देवमूढ़ता है। इस प्रकार देवमूढ़ता के अनेक भेद हैं। गणेश, हनुमान, लिंग, योनि, चतुर्मुख-षट्मुख का रूप, देवत्व रहित प्रकट असंभव तिर्यंचरूप को देव मानना, बड़-पीपलादि वृक्षों को, नदी को, जल को, वायु को, अग्नि को, अनाज को देव मानना सो सब देवमूढ़ता है, अधिक क्या लिखें ? अब आगे गुरुमूढ़ता का वर्णन करनेवाला श्लोक कहते हैं - सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ।।२४।। अर्थ :- परिग्रह, आरंभ और हिंसा सहित संसाररूप भंवरों में प्रवर्तन करनेवाले पाखण्डियों को प्रधान मानकर उनके वचनों में आदरपूर्वक प्रवर्तन करना पाखण्डमूढ़ता है। भावार्थ :- जिनेन्द्र के धर्म का श्रद्धान–ज्ञान रहित होकर, अनेक प्रकार का भेष धारण करके, अपने को ऊँचा मानकर, जगत के जीवों से पूजा-वंदना-सत्कार चाहते हुए परिग्रह रखते हैं, अनेक प्रकार के आरम्भ करते हैं, हिंसा के कार्यों में प्रवर्तते हैं, इंन्द्रियों के विषयों के रागी-संसारी-असंयमी-अज्ञानियों से गोष्ठी वार्ता करके अभिमानी होकर, अपने को आचार्य, पूज्य , धर्मात्मा कहलाते हुए रागी-द्वेषी होकर प्रवर्तते हैं; युद्धशास्त्र , श्रृगांर के शास्त्र , हिंसा के कारण आरंभ के शास्त्र, राग के बढ़ानेवाले शास्त्रों का आप महन्त होकर उपदेश देते हैं वे सब पाखण्डी है। जिनके अनेक प्रकार से रसों सहित भोजन में आसक्ति है; इसी कारण काम-भोग-बंध की कथा में लीन हो रहे हैं, परिग्रह को बढ़ाने के लिये दुर्ध्यानी हो रहे हैं; जो मुनि, साधु, आचार्य, महन्त, पूज्य नाम से कहलाते हैं, लोगों से नमस्कार कराना चाहते हैं; विकथा करते हैं, विषयों में लीन हैं; मंत्र-तंत्र-यंत्र-जप–मारण-उच्चाटन-वशीकरणादि निंद्य आचरण करते हैं वे सभी पाखण्डी हैं। उन पाखण्डियों के वचनों को प्रमाण मानना, उनका सत्कार करना, उन्हें धर्म कार्य में प्रधान मानना वह पाखण्डमूढ़ता है। अब सम्यक्त्व को नष्ट करनेवाले आठ मदों का नाम कहनेवाला श्लोक कहते हैं - ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ।।२५।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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