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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार [३३ अब सम्यक्त्व का वात्सल्य नाम का सप्तम अंग कहनेवाला श्लोक कहते हैं - स्वयूथ्यान्प्रति सद्भाव - सनाथापेतकैतवा। प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं, वात्सल्यमभिलप्यते ।।१७।। अर्थ :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म धारण करनेवालों का जो यूथ अर्थात् समूह वह धर्मात्मा का अपना समूह है। रत्नत्रय के धारकों के यूथ में रहनेवाले मुनि, आर्यिका , श्रावक, श्राविका, तथा अव्रत-सम्यग्दृष्टियों के प्रति सच्चे भाव सहित, कपट रहित यथायोग्य प्रतिपत्ति अर्थात् उठकर खड़ा हो जाना, सामने आ जाना, वन्दना करना, गुणों का स्तवन करना, हाथ जोड़ना, आज्ञा मानना, पूजा-प्रशंसा करना, ऊंचे स्थान पर बैठाकर स्वयं नीचे बैठ जाना, उनके आने से इतना हर्ष मानना जितना किसी दरिद्री को महानिधान के प्राप्त हो जाने से होता है, महान प्रीति का भाव आना, और अवसर अनुसार आहार-पानी, निवास, सामग्री आदि द्वारा वैयावृत्य करके आनंद मानना उसे वात्सल्य अंग कहते हैं। ___ यहाँ और भी विशेष यह जानना :- जिसको अहिंसा धर्म में प्रीति हो, हिंसा रहित कार्यों को प्रीति सहित करता हो, हिंसा के निमित्तों को दूर से ही टालना चाहता हो; सत्यवचन में, सत्यवचन के धारी में, सत्यधर्म की प्ररूपणा में प्रीति हो; अन्य का धन व अन्य की स्त्री के त्याग में रूचि हो; परधन व परस्त्री के त्यागियों में प्रीति हो; उस ही को वात्सल्य अंग होता है। दश लक्षण धर्म व धर्म के धारकों-साधर्मियों में जिसे अनुराग हो और धर्म में अनुराग होने से त्यागी-संयमियों में महान् आदर पूर्वक प्रियवचनों द्वारा प्रवर्तता हो उसके वात्सल्य अंग होता है। यद्यपि सम्यग्दृष्टि के अंतरंग में तो अपने शुद्ध ज्ञान-दर्शन में अनुराग है, और बाह्य में उत्तम क्षमादि धर्म में तथा धर्म के आयतन में अनुराग है तथापि अन्य मिथ्याधर्मियों से द्वेष नहीं करता है; क्योंकि प्रवचनसार सिद्धान्त ग्रन्थ में ऐसा कहा है :- राग, द्वेष, मोह ये बंध के ही कारण हैं। इनमें मोह अर्थात मिथ्यात्व और द्वेष ये दोनों तो अशुभभाव ही हैं, एकान्त करके संसार परिभ्रमण का कारण पाप कर्म का ही बंध करते हैं। राग भाव है वह शुभ और अशुभ दो प्रकार का है। उनमें से अरहंतादि पंचपरमेष्ठियों में दशलक्षण धर्म में, स्याद्वादरूप जिनेन्द्र के आगम में, वीतराग के प्रतिबिम्ब में, वीतराग के प्रतिबिम्ब के आयतन में अनुरागरूप जो शुभ भाव है वह स्वर्गादि का साधक पुण्य बंध करनेवाला है तथा परम्परा से मोक्ष का कारण है। विषयों में अनुराग ,कषायों में अनुराग ,मिथ्याधर्म में -मिथ्यादृष्टियों में -परिग्रहादि पांच पापों में अनुरागरूप रागभाव है वह तथा मोहभाव व द्वेषभाव ये सब भाव नरक-निगोदादि में अनंतकाल परिभ्रमण कराने के कारण हैं। जो सम्यग्दृष्टि है वह अन्य अज्ञानी मिथ्या दृष्टि पापियों से भी द्वेषभाव नहीं करता है, क्योंकि सभी जीव मित्यात्वकर्म के व ज्ञानावरणादि कर्मों के वशीभूत होकर अपना स्वरूप भूले हुए हैं, अज्ञानी हैं। इनसे बैर करने में क्या साध्य है ? इनको तो इनकी विपरीत बुद्धि ही मारे डाल रही है। अत: Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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