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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
मनुष्य जन्म का फल तो धीरता तथा संतोष-व्रत सहित धर्म का सेवन करके आत्मा का उद्धार करना है। यह मनुष्य शरीर तो रोगों का घर है, इसमें रोग उत्पन्न होने का क्या आश्चर्य है ? यहाँ तो धर्म ही शरण है। रोग तो उत्पन्न ही होगा, संयोग है वह वियोग सहित ही होता है। किन-किन पुरुषों पर दुःख नहीं आये ? अतः अपना साहस धारण करके एक धर्म का ही अवलम्बन ग्रहण करो। जो-जो वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं वे सभी विनाश सहित हैं। इस शरीर का ही वियोग होना है तो जो अन्य सभी अपने-अपने कर्म के उदय के आधीन उत्पन्न होते हैं और मरते हैं, वे उत्पन्न होंगे और मरेंगे, उनका हर्ष-विषाद करना वृथा बंध का कारण है।
इस दुःखमकाल के जो मनुष्य हैं वे अल्पायु और अल्पबुद्धि लिये ही उत्पन्न होते हैं। इस काल में कषायों की आधीनता, विषयों की गृद्धता, बुद्धि की मंदता, रोग की अधिकता, ईर्ष्या की बहुलता, दरिद्रता आदि लिये ही अधिक उत्पन्न होते हैं। अतः सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके कर्म को जीतने का उद्यम करना योग्य है। कायर होना योग्य नहीं है। ऐसा उपदेश देकर परिणामों को स्थिर करे। रोगी हो तो औषधि, भोजन, पथ्यादि द्वारा उपचार करे। बारह भावनाओं का स्मरण करावे। शरीर की सेवा, मल-मूत्रादि की विकृति को दूर करके जिसतिस प्रकार से परिणामों को धर्म में दृढ़ करना वह स्थितिकरण अंग है।
___ कोई रोग की अधिकता के कारण ज्ञान से चलायमान हो जाय, व्रत भंग करने लगे, अकाल में भोजन, पानी आदि मांगने लगे, त्याग की हुई वस्तु को चाहने लगे तो उसकी अवज्ञा नहीं करे किन्तु उस पर दया करके ऐसा मधुर उपदेश आदि करे जिससे वह फिर सचेत सावधान हो जाये।
कर्म बलवान है। वात-पित्तादि द्वारा ज्ञान बिगड़ जाने का क्या भरोसा है ? यहाँ बहुत उपदेश लिखने से ग्रन्थ बढ़ जायेगा, इसलिये थोड़े से ही बहुत समझ लेना।
दारिद्र आदि से दुःखी को अपनी शक्ति अनुसार, उपदेश, आहार, पानी, वस्त्र, जीविका, रहने का मकान, बर्तन तथा जैसे स्थिरता हो उस प्रकार दान, सम्मान, उपाय करके स्थिर करना वह स्थितिकरण नाम का सम्यक्त्व का छठवाँ अंग है।
यदि अपना आत्मा भी नीतिमार्ग छोड़कर, काम-मद-लोभ के वश होकर, अन्याय के विषय तथा धन की इच्छा करने लगे, अयोग्य वचनों में प्रवृत्ति करने लगे, अभक्ष्य-भक्षण में प्रवृत्ति हो जाय, अभिमान के वश हो जाय, संतोष से चिग जाय, अनेक प्रकार के परिग्रह में लालसा बढ़ जाय, कुटुम्ब में राग अधिक बढ़ जाय, रोग सहने में कायर हो जाय, आर्तध्यानी हो जाय, वियोग में शोक सहित हो जाय, निर्धनता से दीन हो जाय, उत्साह रहित हो जाय, आकुलतारूप हो जाय तो उसे भी अध्यात्मशास्त्रों का स्वाध्याय करावे, बारह भावना की शरण ग्रहण करावे, आत्मा के अजर-अमर-अविनाशी-एकाकी, पर-द्रव्य के भाव रहित स्वभाव का चिन्तन करावे, धर्म से नहीं छूटने दे तथा असातादि कर्म, अन्तरायकर्म तथा और भी अन्य कर्मों के उदय को आत्मा से भिन्न मानकर कर्मों के उदय के कारण अपने स्वभाव को चलित नहीं होने देना वह स्थितिकरण नाम का छठवाँ अंग है।
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