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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
सम्यग्दृष्टि दयाभाव ही रखता है, रागद्वेष रहित मध्यस्थ रहता है; क्योकि जो सम्यग्दृष्टि है वह तो वस्तु के स्वभाव को सच्चा जानकर एकेन्द्रियादि जीवों में करूणाभावरूप प्रीति ही करता है। सभी मनुष्यों में बैर रहित होकर किसी भी जीव की विराधना, अपमान, हानि नहीं चाहता है। मिथ्यादृष्टियों के बनाये जो देवताओं के मंदिर, स्थान, मठ हैं उनसे बैर करके उन्हें नष्ट नहीं करना चाहता है। सरागी देवों की मूर्ति, देवताओं की क्रूररूप मूर्ति, तथा योगिनी, यक्ष, भैरवादि व्यन्तरों की स्थापना के स्थान हैं इनसे कभी बैर नहीं करना है; क्योकि ये देवताओं को मूर्तिया तथा इनके स्थान तो अनेक जीवों के अभिप्राय के आधीन पूजने-आराधने को ही बनाये गये हैं। अन्य के अभिप्राय को अन्य प्रकार का करने में कौन समर्थ है ? सभी मनुष्य अपना-अपना धर्म मानकर देवताओं की स्थापना करते हैं। जिसको जैसा सम्यक् या मिथ्या उपदेश मिला उसी प्रकार प्रवर्तन करते हैं।
इसलिये वस्तु को स्वरूप को जाननेवाला, सभी में साम्यभाव रखनेवाला सम्यग्दृष्टि जब किसी मनुष्य को ही रे, तूं आदि कहकर नहीं बोलता है तो अन्य के धर्म, देव, मंदिर आदि को गाली व अवज्ञा के वचन कैसे कहेगा? नहीं ही कहेगा। जो सभी जीवों में मैत्रीभाव रखनेवाला सम्यग्दृष्टि है वह अचेतन स्थान, पाषाण, गृहादि व अन्य के विश्राम स्थानों में स्वप्न में भी वैर नहीं करता हैं।
अन्य जो दुष्ट बलवान होकर हमारा धन-धरती-आजीविका व कुटुम्ब का घात और हमारा भी मरण करना चाहे उनमें भी बैर नहीं करता है। वह तो इस प्रकार विचार करता है - हमारे ही पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से मुझसे बैर रखनेवाला बनवान शत्रु पैदा हुआ है। अतः अब मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार साम जो प्रियवचन, दाम जो धन देना, अपने बल प्रमाण दण्ड देना तथा इनमें परस्पर भेद करना आदि उपायों से शत्रु को रोककर अपनी रक्षा करनी चाहिये। यदि शत्रु नहीं रूके, तो आप ही विचार करता है – मेरे पूर्व उपार्जित कर्मों का उदय आया है इसलिये शत्रु को बलवान बनाया और मुझे कमजोर बनाकर कर्मों ने दण्ड दिया है, अब मैं किससे बैर करूँ? मेरा बैरी कर्म निर्जरित जैसे हो जाय वैसे साम्यभाव को धारण कर कर्म को जीतू। अन्य से बैर करके व्यर्थ का कर्मबंध नहीं करूँगा। सम्यग्दृष्टि को सभी में वात्सल्य है, किसी से बैर नहीं रखता है।
यदि कोई दुष्ट जीव धर्म से बैर करके मंदिर-प्रतिमा का विघ्न करना चाहे तो उसे अपने सामर्थ्य से रोका जा सके तो रोके। अपने से प्रबल हो तो विचार करे कि - काल के निमित्त से धर्म का घातक होकर प्रगट अपना बैर साध रहा है, प्रबल है, कैसे रुकेगा? हमारे उत्तमक्षमादि तथा सम्यग्ज्ञान-श्रद्धानादि धर्म को घातने में कोई समर्थ नहीं है। मंदिर आदि तो दुष्ट बिगाड़ते ही हैं और धर्मात्मा पुनः बनवाते ही हैं। काल के निमित्त से (पंचमकाल के दोष से) अनेक दुष्ट उत्पन्न होते हैं, उन्हे रोकने में कौन समर्थ है ? भावी बलवान है। यदि अच्छी होनहार होती तो दुष्ट मिथ्यादृष्टि प्रबल बल के धारक नहीं उत्पन्न होते। इसलिये वीतरागता ही हमारे लिये परमशरण है। इस प्रकार वात्सल्य नाम का सप्तम अंग का वर्णन किया।
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