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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
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वह भय परिग्रह है।६। अपने को अच्छा लगनेवाले पदार्थों में आसक्ति से लीन होना, वह रति परिग्रह है।७। अपने को अनिष्ट लगनेवाले पदार्थों में विरक्तता होना-परिणाम नहीं लगना वह अरति परिग्रह है।८। इष्ट सामग्री का वियोग होने से क्लेशरूप परिणाम होना वह शोक परिग्रह है।९। घृणावान वस्तु को देखकर, सुनकर, छूकर, विचारकर परिणामों में ग्लानि का उत्पन्न होना वह जुगुप्सा परिग्रह है। अथवा दूसरों का उदय देखकर नहीं सुहाना, वह जुगुप्सा परिग्रह है। १०। रोष के परिणाम होना वह क्रोध परिग्रह है।११। उच्च जाति, कुल , तप, रूप, ज्ञान, विज्ञान (ऋद्धि), ऐश्वर्य (पूजा), बल आदि का मद करके अपने को ऊँचा तथा औरों को नीचा समझकर कठोर परिणाम होना वह मान परिग्रह है।१२। कपट सहित वक्र परिणाम होना वह माया परिग्रह है।१३। परद्रव्यों की चाहरूप परिणाम होना वह लोभ परिग्रह है।१४।
इस प्रकार संसार का मूल, आत्मा का घातक, तीव्र बंधन का कारण चौदह प्रकार का अंतरंग परिग्रह और क्षेत्र १. वास्तु २. हिरण्य ३, स्वर्ण ४, धन ५, धान्य ६, दासी ७, दास ८, कुप्य ९, भांड १० – ये दश भेदरूप बाह्य परिग्रह हैं। ऐसे अंतरंग-बहिरंग चौबीस प्रकार के परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ मुनि के ही गुरुपना निश्चय करना।
संयम धारण करके भी अंतरंग-बहिरंग परिग्रह से जिनका मन मलिन है, उनके गुरुपना नहीं बन सकता है। जो निरन्तर दिन-रात चलते बैठते भोजन करते हुए भी ज्ञानाभ्यास में, धर्मध्यान में, इच्छा निरोध नामक तप में आसक्त हैं, वे गुरु ही प्रशंसा योग्य हैं, मान्य हैं, पूज्य हैं, वंदनीय हैं।
इन गुणों के बिना किसी को सम्यग्दृष्टि वंदनादि नहीं करता है। अथवा “ज्ञान ध्यान तपो रत्न:” ऐसा भी श्लोक का पाठ है- जिसका अर्थ है - ज्ञान, ध्यान तप ही हैं रत्न जिसके, ऐसा गुरु होता है। इस प्रकार गुरु का स्वरूप कहा।
अब देव , गुरु, आगम का श्रद्धान है लक्षण जिसका ऐसे सम्यग्दर्शन के निःशंकित नामक अंग को कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
इदमेवेदृशं चैव तत्वं नान्यन्नचान्यथा ।
इत्यकम्पाऽऽयसाम्भोवत् सन्मार्गेऽसंशया रूचिः।।११।। ___ अर्थ :- यहां तत्त्वभूत आप्त, आगम और गुरु का जो लक्षण बताया है, वह ही सत्यार्थ स्वरूप है। ईदृशं चैव अर्थात् इसी प्रकार है, अन्य प्रकार नहीं है; ऐसा तलवार की धार के पानी की तरह सन्मार्ग में संशय रहित अकम्प रुचि अर्थात् श्रद्धान होना, वह निःशंकित अंग नाम का गुण है।
भावार्थ :- संसार में अनेक प्रकार के गदा, चक्र, त्रिशूलादि आयुध के धारी, स्त्रियों में अति आसक्त, क्रोधी, मानी, मायाचारी, लोभी, अपना शौर्य आदि कर्त्तव्य दिखाने के इच्छुक को देव कहा जाता है; हिंसा, काम, क्रोधादि में धर्म बताने वाले शास्त्र को आगम कहा जाता है; और अनेक पाखण्डी, लोभी, कामी, अभिमानी आदि को गुरु कहा जाता हैं; किन्तु वे कोई भी सच्चे नहीं हैं, ऐसा दृढ़ श्रद्धान जिसे है, उसके निःशंकित गुण है। मूढ़ों की खोटी युक्तियों द्वारा जिसका चित्त चलायमान
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