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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२०]
भावार्थ - जो रसना इंद्रिय का लम्पटी हो, अनेक प्रकार के रसों के स्वाद की इच्छा के वशीभूत हो रहा हो, कर्णइंद्रिय के वशीभूत हो, अपना यश-प्रशंसा सुनने का इच्छुक हो, अभिमानी हो; नेत्रों द्वारा सुन्दर रूप, महल, मंदिर, बाग, वन,
हल, मादर, बाग, वन, ग्राम, आभूषण वस्त्रादि देखने का इच्छुक हो; कोमलशय्या-कोमल उच्चआसन के ऊपर सोने-बैठने का इच्छुक हो, सुगंध आदि ग्रहण करने का इच्छुक हो, विषयों का लम्पटी हो सो ऐसा गुरु दूसरों को विषयों से छुड़ाकर वीतराग मार्ग में नहीं लगा सकता; वह तो सराग मार्ग में ही लगाकर संसार समुद्र में डुबो देगा।
- इसलिये जो विषयों की आशा के वशीभूत नहीं हो ऐसा गुरु ही आराधन, वंदन योग्य है। जिसे विषयों में अनुराग हो वह तो आत्मज्ञान रहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होगा ? जिसके त्रस-स्थावर जीवों के घात का आरंभ होता हो, उसे पाप का भय नहीं है, पापी के गुरुपना कैसे संभव है ?
जो चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह तथा दस प्रकार के बहिरंग परिग्रह सहित हो, वह गुरु कैसे हो सकता है ? परिग्रही तो स्वयं ही संसारी में फंस रहा है, वह अन्य जीवों का उद्धार करनेवाला गुरु कैसे होगा ?
परिग्रह के विषय में विचार यहाँ मिथ्यात्व १, स्त्री-पुरुष नपुंसक वेद २, राग ३, द्वेष ४, हास्य ५, रति ६, अरति ७ ,शोक ८, भय ९, जुगुप्सा १०, क्रोध ११, मान १२, माया १३, लोभ १४ – इस प्रकार चौदह अंतरंग परिग्रह हैं। इनका स्वरूप कहते हैं।
यद्यपि मनुष्यादि पर्याय, शरीर, शरीर का नाम, शरीर का रूप तथा शरीर के आधार से जाति , कुल , पदवी, राज्य , धन, कुटुम्ब, यश-अपयश, ऊँच – नीचपना, निर्धनपनाधनवानपना, मान्यता-अमान्यता, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रादि वर्ण, स्वामी-सेवक, यतिगृहस्थपना इत्यादि बहुत प्रकार हैं, वे सब पुद्गलों की रचनामय कर्मों के किये हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं; तथा सुनते हैं, अनुभव करते हैं कि ये विनाशीक हैं, पुद्गलमय हैं, मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा अच्छी तरह बारम्बार निर्णय कर लिया है, तो भी अनादिकाल से मिथ्यात्वकर्म के उदय से ऐसा दृढ़ संस्कार जमा है कि इनके नाश होने से अपना नाश मानता हैं; इनके घट जाने से अपना घट जाना, बढ़ जाने से अपना बढ़ जाना, ऊँचापना, नीचापना मानकर सभी जीव देहादिमय हो रहे हैं। यद्यपि अपने वचनों द्वारा इन सभी को कहता है कि ये पररूप हैं, हमारे नहीं है, पराधीन हैं, विनाशीक हैं तथापि अंतरंग में इनके संयोगवियोग में आत्मा राग-द्वेष सुख-दुःख रूप होता है, वही मिथ्यात्व नाम का परिग्रह है।१।
स्त्री-पुरुष नपुंसक आदि में कामसेवनरूप राग अंतरंग में होता है, वही वेद नाम का परिग्रह है।२। परद्रव्य जो देह, धन, स्त्री, पुत्रादि में प्रसन्न होना, वह राग परिग्रह है।। पर का ऐश्वर्य, यौवन, धन, संपदा, यश, राज्य वैभव आदि से बैर रखना सो द्वेष परिग्रह है।४। हास्य के परिणाम होना वह हास्य परिग्रह है।५। अपना मरण होना जानने से वियोग, वेदना आदि होने से डरपना
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