________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२२]
नहीं होता, तथा खोटे देवताओं के विकार द्वारा, मन्त्र-तन्त्र आदि द्वारा परिणाम विकारी नहीं होते हैं, उसके निःशंकित गुण है। जैसे तलवार की धार का पानी हवा द्वारा चलायमान नहीं होता है, वैसे ही जिसके सच्चे देव-गुरु-धर्म के स्वरूप संबंधी परिणाम मिथ्यादृष्टियों के वचनरूप हवा के द्वारा संशय को प्राप्त नहीं होते, उसके निःशंकित गुण होता है।
यहां कुछ और भी विशेष कहते हैं - आत्मतत्त्व का जैसा स्वरूप निर्दोष आगम में कहा है वैसा स्वानुभव करके जिसने अपने को आपरूप जाना है और पर पुद्गलों के संबंध को पररूप जाना है, ऐसा सम्यग्दृष्टि सप्तभय रहित होकर निःशंकित गुण को प्राप्त करता है।
सप्तभयों के नाम व स्वरूप कहते हैं - इसलोक का भय १, परलोक का भय २, मरण का भय ३, वेदना का भय ४, अनरक्षा भय ५, अगुप्ति भय ६, अकस्मात भय ७।।
अपने परिग्रह, कुटुम्ब, आजीविका आदि के बिगड़ जाने का भय वह इसलोक का भय है। यह सभी संसारी जीवों को होता है।१। मरणकर परलोक में जाकर नहीं मालूम किस गति व क्षेत्र में जाऊँगा, ऐसा भय वह परलोक का भय है।२। मरण होने का बड़ा भय लगना कि मेरा नाश हो जायेगा, नहीं मालूम कितना दु:ख होगा, मेरा अभाव हो जायेगा ऐसा भय वह मरणभय है।३। रोगादि का कष्ट आने का भय वह वेदना भय है।४। अपना कोई रक्षक नहीं है, ऐसा जानकर डरना वह अनरक्षा भय है।५। अपनी वस्तु के चोरी चले जाने का भय, अपने छिपने के स्थान का दूसरों को पता लग जाने का भय, वह अगुप्ति भय है।६। अचानक दुःख उत्पन्न न हो जाये, ऐसा भय वह अकस्मात् भय है।७।
अपना और पर का स्वरूप सही-सही जाननेवाले सम्यग्दृष्टि को ये सप्तभय नहीं होते हैं।
इस देह में पैर के नाखून से लगाकर मस्तक तक जो ज्ञान है, चैतन्य है, वह हमारा धन है। इस ज्ञानभाव से भिन्न एक परमाणु मात्र भी हमारा नहीं है। देह और देह के संबंधी, जो स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, राज्य, वैभव आदि हैं, वे सभी मुझसे भिन्न पर-द्रव्य हैं, संयोग से उत्पन्न हुए है, मेरा इनका क्या संबंध है ? संसार में ऐसे संबंध तो अनंतानंतबार होकर छट गये हैं। जिनका संयोग हुआ है, उनका वियोग निश्चय से होगा ही। जो उत्पन्न हुआ है, वह अवश्य विनाश को प्राप्त होगा। “ मैं ज्ञान स्वरूप आत्मा उत्पन्न नहीं हुआ, अतः विनाश को भी प्राप्त नहीं होऊंगा” ऐसा जिसे दृढ़ निश्चय है, उसको देह छूटने का और दश प्रकार के बाह्य परिग्रह के वियोग होने का भय नहीं रहता है; इसलिये इसलोक के भय से रहित सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक है।
सम्यग्दृष्टि को परलोक का भय भी नहीं होता है। जिसमें सभी वस्तुएँ दिखाई देती हैं, वह लोक है। हमारा लोक तो हमारा ज्ञानदर्शन स्वभाव है, जिसमें समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। ये जो समस्त पदार्थ झलक रहे हैं, उनको अपने ज्ञान स्वभाव में मैं अवलोकन करता हूँ, अपने ज्ञान के बाहर किसी वस्तु को मैं नहीं देखता हूँ, नहीं जानता हूँ। जब कभी हमारा ज्ञान निद्रा द्वारा ढक दिया जाता है तथा रोगादि द्वारा मूर्छा से ढक दिया जाता है, तब यद्यपि सम्पूर्ण लोक विद्यमान
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com