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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार १६] जिनके वचन व काय की प्रवृत्ति समस्त जीवों के हित के लिये ही होती है, वे भगवान आप्त सार्व कहलाते हैं। अन्य जो काम, क्रोध, संग्राम आदि हिंसा प्रधान समस्त पापों द्वारा स्वपर के अहित में प्रवर्तन करते हैह, कराते हैं, उनको ऐसा नाम ही संभव नहीं है। इस प्रकार आठ विशेषण सहित सार्थक नामों द्वारा शास्ता जो आप्त उसका असाधारण स्वरूप कहा है। शास्तीति शास्ता' इसका निरूक्ति अर्थ ऐसा है - जो निकट भव्य शिष्य हैं उन्हें जो हित की शिक्षा देवे वह शास्ता कहलाता है। अब जो शास्ता अर्थात् आप्त है वह सत्पुरुषों को स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करानेवाली शिक्षा प्रदान करके अपनी प्रशंसा, लाभ, पूजादिक फल को नहीं चाहता है, ऐसा कथन करनेवाला श्लोक कहते हैं - अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम्। ___ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ।।८।। अर्थ :- शास्ता जो धर्मोपदेशरूप शिक्षा देनेवाले अरहन्त आप्त हैं वे अनात्मार्थ अर्थात् अपनी ख्याति, लाभ, पूजादि प्रयोजन के बिना ही तथा शिष्यों मे रागभाव के बिना ही सत्पुरुष जो निकट भव्य हैं उन्हें हितरूप शिक्षा देते हैं; जैसे वाद्य बजानेवाले शिल्पि के हाथ का स्पर्श मात्र पाकर मृदंग अनेक प्रकार से ध्वनि करने लगता है, किन्तु बदले में वह मृदंग कुछ भी नहीं चाहता है। भावार्थ :- संसारी जन लोक में जितना कार्य करते है वह सब अपना अभिमान, लोभ , यश, प्रशंसा आदि के लिये करते है; और भगवान अरहंत आप्त अपना कुछ भी प्रयोजन बिना, चाह बिना ही, जगत के जीवों को हित की शिक्षा देते हैं। जैसे-मेघ प्रयोजन के बिना ही लोगों के पुण्य के उदय के निमित्त से उत्तम देशों में जाते हैं, गर्जना करते हैं और प्रचुर जल की वर्षा करते हैं; उसी प्रकार भगवान आप्त भी लोगों के पुण्य के उदय के निमित्त से उत्तम देशों में विहार करते हैं और धर्मरूप अमृत की वर्षा करते हुए उपदेश देते हैं; क्योंकि सत्पुरुषों की प्रवृत्ति अर्थात् जो आचरण होता है वह दूसरों के उपकार के लिये ही होता है। जैसे कल्पवृक्षादिक वृक्ष , आम्रादि वृक्ष , धान्यादि अनाज अन्य जीवों के उपकार के लिये ही फलते हैं; पर्वत स्वर्ण रत्नादि को, प्रचुर जल को, अनेक वृक्षों आदि को बिना किसी इच्छा के जगत के उपकार के लिये ही धारण करते हैं; समुद्र रत्नादि को तथा गायें दूध को अन्य के उपकार के लिये ही धारण करते हैं; दातार दूसरों के उपकार के लिये ही धन का संग्रह करते हैं; उसी प्रकार सत्पुरुष उत्तम वचनों को परोपकार के लिये ही बिना कुछ चाह भाव के बोलते हैं। बहुत कहने से क्या ? जितने भी उपकारक पदार्थ हैं वे सभी बिना कुछ चाह भाव के ही लोगों के पुण्य के प्रभाव से प्रगट होते हैं, उसी प्रकार भगवान आप्त भी बिना इच्छा के ही लोगों के परम उपकार के लिये धर्मरूप हितोपदेश देते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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