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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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कराता हुआ, जन्म- जरा - मरण के दुखों का निराकरण करता हुआ विराजमान है; ऐसे भगवान आप्त को परमेष्ठी कहते हैं।
जो कर्मों की आधीनता से इंद्रियों के काम-भोग आदि विषयों में तथा विनाशीक संपदारूप राज्य-संपदा में मग्न होकर स्त्रियों के आधीन होकर विषयों की तपन सहित रह रहे हैं उनको परमेष्ठीपना संभव ही नहीं है।
जो परंज्योति है; जिसके परं अर्थात् आवरण रहित, ज्योति अर्थात् अतीन्द्रिय अनंतज्ञान में लोक- अलोकवर्ती समस्त पदार्थ अपने त्रिकालवर्ती अनन्तगुण पयायों के साथ युगपत् प्रतिबिम्बित हो रहे हैं; ऐसे भगवान परम ज्योतिस्वरूप आप्त हैं । अन्य जो इन्द्रियजनित ज्ञान से अल्पक्षेत्रवर्ती वर्तमान स्थूल पदार्थों को क्रम-क्रम से जानता है उसे परंज्योति कैसे कहा जा सकता है ?
जिसे मोहनीय कर्म का नाश होने से समस्त पर - द्रव्यों में राग-द्वेष का अभाव होने से वांछारहित परम वीतरागता प्रगट हुई है, वह वस्तु का सच्चा स्वरूप जान लेने पर किसमें राग करेगा और किसमें द्वेष करेगा ? जैसा वस्तु का स्वभाव है कैसा राग-द्वेष रहित जानता है; ऐसा विराग नाम सहित अरहन्त ही आप्त है। जो कामी - विषयों में आसक्त, गीत-नृत्यवाद्यों में आसक्त, जगत की स्त्रियों को लुभाने में बैरियों को मारकर लोगों में अपना शूरपना प्रगट करने की इच्छा सहित है उसको विरागपना संभव नहीं है।
जिनका काम, क्रोध, मान, माया, लोभादि भावमल नष्ट हो गया है; ज्ञानावरणादि कर्ममल नष्ट हो गया है; मूत्र, पुरीष, पसेव, वात, पित्तादि शरीरमल नष्ट हो गया है; निगोदिया जीवों से रहित, छाया रहित, कांति युक्त, क्षुधा, तृषा, रोग, निद्रा, भय, विस्मय आदि रहित परम औदारिक शरीर में विराजमान वे भगवान आप्त अरहन्त ही विमल हैं। अन्य जो काम, क्रोध आदि मलों सहित हैं वे विमल नहीं है।
जिन्हें कुछ करना वाकी नहीं रहा, जो शुद्ध अनन्त ज्ञानादिमय अपने स्वरूप को प्राप्त होकर व्याधि-उपाधि रहित कृतकृत्य हुए वे भगवान आप्त ही कृती हैं; अन्य तो जन्म–मरण आदि सहित; चक्र, आयुध, त्रिशूल, गदा आदि सहित; कनक - कामिनी में आसक्त; भोजनपान, काम–भोगादिक की लालसा सहित, शत्रुओं को मारने की आकुलता सहित हैं वे कृती नहीं हैं
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जो इंद्रियादि परद्रव्यों की सहायता रहित, युगपत्, समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को, क्रमरहित, प्रत्यक्ष जानते हैं वे भगवान आप्त ही सर्वज्ञ हैं; अन्य जो इंद्रियाधीन - ज्ञान सहित हैं वे सर्वज्ञ नहीं हैं ।
जिनका जीव द्रव्य की अपेक्षा तथा ज्ञान - दर्शन - सुख - वीर्य गुणों की अपेक्षा आदि, मध्य, अन्त नहीं है इसलिये अनादिमध्यान्त हैं। दूसरे अर्थ में
भगवान आप्त अनादिकाल से
हैं और कभी अन्त को प्राप्त नहीं होंगे इसलिये अनादिमध्यान्त हैं। जिनके मत में आप्त का जन्म-मरण, जीव का नवीन उत्पन्न होना तथा जीव के ज्ञानादि गुण नवीन उत्पन्न होना मानते हैं उनमें अनादिमध्यान्तपना नहीं बनता है ।
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