________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार 484] या विधि विमल सम्यक्त्व धरि, शंकादि पंक वहावना / रुचें भव्यनि कौं वचन ये, शनि को न सुहावना / चन्द्र लखि जिमि कुमुद विकसैं , उपल नहिं विकसावना। “भागचन्द्र” विभाव तजि, अनुभव स्वभावित भावना / या शरण न अन्य जगतारण्य में कहुं पावना / - पं. भागचन्द्र जी अब हम आतम को पहिचाना जी जैसा सिद्धक्षेत्र में राजत तैसा घट में जाना जी। देहादिक परद्रव्य न मेरे, मेरा चेतनवाना जी। द्यानत जो जाने सो स्याना, नहिं जाने सो दीवानाजी। - पं.द्यानतराय जी समाप्त / / इति शुभम् / / 555 Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com