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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार] [४८३ ५७. आहार का लंपटी निर्लज्ज होता है, आचार विचार रहित होता है। पृ. ४४६ ५८. संसार में जितने भी दुःख हैं वे सभी विषयों के लम्पटी, अभिमानी तथा लोभी को होते हैं पृ. ४७७ ५९. यह किनारे पर पहुँची नाव है, यदि अब प्रमादी रहोगे तो डूब जायेगी। पृ. ४५० ६०. भगवान सर्वज्ञदेव ने श्रावक के ग्यारह स्थान (प्रतिमायें ) कहे हैं। वे स्थान पूर्व के स्थानों के गुणों सहित क्रम से बढ़ते हुए रहते हैं। पृ. ४६५ ६१. जो अपने पाप कर्म के सिवाय अन्य पुरुष को वैरी मानता है, वह मिथ्याज्ञानी है; उसने जिनेन्द्र के आगम को जाना ही नहीं है। ___ पृ. ४७० जीव-जन्मादि रहित नित्य ही है तथापि मोही जीव को अतीत-अनागत का विचार नहीं है, इसलिए प्राप्त पर्याय मात्र ही आपकी स्थिति मानकर पर्याय सम्बन्धी कार्यों में ही तत्पर हो रहा है। - पं. टोडरमल जी: मोक्षमार्ग प्रकाशक कीच सौ कनक जाकै, नीच सौ नरेश पद, मीत सी मिताई , गरुवाई जाकै गार सी। जहर सी जोग जाति, कहर सी करामाति, हहर सी हौस, पुद्गल छवि छार सी ।। जाल सो जग विलास, भाल सौ भुवन वास, काल सौ कुटुम्ब काज, लोक लाज लार सी। सीट सौ सुजसु जानै, वीठसौ वखत माने, ऐसी जाकी रीति, ताहि बन्दत बनारसी ।। - प. बनारसीदास जी: नाटक समयसार चाहत है धन होय किसी विधि, तो सब काज सरै जियरा जी । गेह चिनाय करूं गहना कछु, ब्याह सुतासुत बांटिये भाजी ।। चिंतत यों दिन जांहि चले, जम आन अचानक देत दगा ही । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाय रुपी शतरंज की बाजी ।। - पंड़ित भूधरदासजी: जैन शतक दया दान पूजा शील पूंजी सों अजानपने, जितनों हंस तू अनादिकाल में कमायगो। तेरे बिन विवेक की कमाई न रहे हाथ, भेदज्ञान बिना एक समय में गमायगो।। अमल अखंडित स्वरुप शुद्ध चिदानंद, याके वणिज मांहि एक समय जो रमायगो। मेरी समझ मान जीव अपने प्रताप आप, एक समय की कमाई तू अनंतकाल खायगो ।। - पं. बनारसीदास जी भजन अहो! यह उपदेश माहिं, खूब चित्तं लगावना । होयगा कल्याण तेरा, सुख अनन्त बढ़ावना । रहित दूषन विश्व भूषन, देव जिनपति ध्यावना । गगनवत् निर्मल अचल मुनि, तिनहिं शीश नमावना । धर्म अनुकम्पा प्रधान, न जीव कोई सतावना । सप्त तत्त्व परीक्षा करि, हृदय श्रद्धा लावना। पुद्गलादिक तें पृथक, चैतन्य बह्म लखावना । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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