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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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३७. संयम का पालन करके भोगों की इच्छा करना तो उसी प्रकार की मूर्खता है जैसे कोई चिन्तामणि
रत्न को एक कौंडी में बेच देता है, अपनी रत्नों से भरी समुद्र में दौड़ती हुई नाव को ईंधन के लिये तोड़ देता है, धागे के लिये मणियों के हार को तोड़ता है, राख के लिये गोशीर चन्दन को जला डालता है।
पृ. ३१७ ३८. इस संसार में जब अनन्त पर्यायें दुःख की प्राप्त होती है, तब एक पर्याय इंद्रियजनित सुख की प्राप्त होती है।
पृ. ३१७ ३९. इस संसार में स्वयंभूरमण समुद्र के समस्त जल के बराबर तो दुःख हैं, तथा एक बाल की नोंक
पर जितना जल लगता है उसके अनंतभाग करने पर उसमें से एक भाग के बराबर इंद्रियजनित सुख है।
पृ. ३१७ ४०. जो वचनों से अपनी प्रशंसा करता है वह नीचगोत्र कर्म का बंध करता है।
पृ. ३२१ ४१. भावों में से विषयों की इच्छा, रागद्वेषादि उपद्रव, मिथ्यात्वरुप महामल दूर हुए बिना मुनि का आचार तथा उज्ज्वलता को प्राप्त नहीं होता है।
पृ. ३२४ ४२. अवमौदर्यतप भोजन में लालसा घटाने के लिये किया जाता है।
पृ. ३३० ४३. जैसे मूढ़ वैद्य रोगी का विपरीत इलाज करके उसे प्राण रहित कर देता है, उसी प्रकार अज्ञानी गुरु भी शिष्य को संसार समुद्र में डुबो देता है।
पृ. ३३३ ४४. इस कलिकाल में तपस्वीजनों में भी सत्य आचार के धारी अति विरले ही दिखाई देते है, केवल भेषधारी ही बहुत दिखाई पड़ते हैं।
पृ. ३३४ सम्यक देशनालब्धि का प्राप्त होना अनन्तकाल में भी दुर्लभ है। धर्मोपदेश भी मिल जाय; किन्तु योग्य श्रोतापना बिना धर्म ग्रहण नहीं होता है।
- पृ. ३४१ ४६. मिथ्यादर्शन से जिनके ज्ञान नेत्र ढंक रहे है उनका आचार विनयादि सभी संसार बढ़ाने के लिये हैं। पृ. ३६६ ४७. इस लक्ष्मी के समान आत्मा को ठगने वाला दूसरा नहीं है।
पृ. ३७६ ४८. कर्म का उदय आकाश पाताल में कहीं भी नहीं छोड़ता है।
पृ. ३७८ ४९. जैसे गरम अधन में चावल के दाने चारों तरफ दौड़ते हुए पकते है, उसी प्रकार संसारी जीव कर्मों से तपाया हुआ चारों गतियों में परिभ्रमण करता है।
पृ. ३८१ ५०. बहुत आरम्भ करनेवाले बहुत परिग्रह में आसक्त, घोर हिंसक परिणामी, स्वामी द्रोही, विश्वासघाती, कृतघ्नी, अन्यायमार्गी, धर्मद्रोही भी नरक की आयु बांधते है।
पृ. ३८४ कोई धन, कुटुम्ब आदि जीव के साथ नहीं जाता है, अपने भावों से कमाया हुआ पुण्य-पाप कर्म ही साथ जाता है।
पृ. ३८६ ५२. जैसे मल का बनाया हुआ घड़ा, मल से ही भरा, फूटा हुआ चारों तरफ मल को ही बहाता है, वह जल से धोने पर कैसे पवित्र हो सकता है ?
पृ. ३९८ ५३. जगत में जितनी अपवित्र वस्तुएं हैं, वे देह के एक-एक अवयव के स्पर्श से होती है, देह के संबंध बिना लोक में अपवित्रता कहाँ से होगी ?
पृ. ३९८ ५४. धर्म की रक्षा के लिये देह का त्याग करना सल्लेखना है।
पृ. ४२९ ५५. अनादिकाल से मिथ्यात्व सहित अनन्तानन्तबार वाल मरण किये। यदि एक बार भी पंडित मरण करता तो फिर मरण का पात्र नहीं होता।
पृ. ४२३ ५६. समाधिमरण समान इस जीव का उपकार करनेवाला कोई नहीं है।
पृ. ४३७
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