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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार] [४८१ १५. अभक्ष्य-भक्षण करने से ही लोगों की वृद्धि सत्यार्थ धर्म से रहित हो गई है। पृ. १४६ १६. उपवास इंद्रियों को जीतने के लिये किया जाता है। पृ. १६५ १७. इस पंचमकाल में वीतरागी भावलिंगी साधु कोई विरला ही देशान्तर में रहता है। पृ. १८१ १८. शास्त्र पढ़ाने के समान दूसरा दान नहीं है। पृ. १८५ १९. इस दुःखमकाल में यहाँ सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति होती ही नहीं है। पृ. १८८ २०. दान के उत्तम पात्र तो निर्ग्रन्थ वीतरागी समस्त मूलगुण उत्तरगुण के धारक, दश लक्षण धर्म धारक, बाईस परीषह सहनेवाले साधु है। पृ. १९१ २१. अनेक एकांती परमागम की शरण रहित आत्मज्ञान रहित मिथ्यादृष्टि कुपात्र है। पृ. १९२ २२. इस कलिकाल में लोग भगवान का कहा नय-विभाग तो समझते नहीं है, तथा शास्त्रों में लिखा है, उस कथनी को नय विभाग से जानते नहीं हैं तथा अपनी कल्पना से ही पक्ष ग्रहण करके चाहे जैसे इच्छानुसार प्रवर्तते हैं। पृ. २०२ २३. मुनिराज तो समस्त स्त्री मात्र का साथ ही नहीं करते हैं, स्त्रियों में उपदेश नहीं करते हैं। पृ. २४१ २४. पात्रदान होना महाभाग्य से जिनका भला होना होता है उन्हीं के द्वारा होता है। पृ.२४८ २५. करोड़ों उपकार करने पर भी जैसे कृतघ्न अपना नहीं होता है उसी प्रकार शरीर भी अनेक प्रकार से सेवा करने पर अपना नहीं होता है। पृ. २६२ २६. पंचमकाल के धनाढ्य पुरुष तो पूर्व भव से ही मिथ्याधर्म, कुपात्र, दान, कुदान आदि में लिप्त होकर ऐसे कर्म बांधकर आये हैं कि उनकी नरक तिर्यंचगति की परिपाटी असंख्यात काल अनन्तकाल तक नहीं छूटेगी। पृ. २८६ २७. जिसे अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु, स्याद्वादरुप परमागम, दयारुप धर्म में वात्सल्य है वही संसार परिभ्रमण का नाश करके निर्वाण को प्राप्त करता है। पृ. २८७ २८. यदि रोगी का जहर दूर नहीं हो, तो वैद्य स्वयं जहर नहीं खा लेता है। २९. फल तो जैसी हमारी चेष्टा, परिणाम, आचरण होगा वैसा प्राप्त होगा। पृ. २९३ ३०. जैसे टेड़े म्यान में सीधी तलवार प्रवेश नहीं करती है उसी प्रकार कपट से वक्र परिणामी के हृदय में जिनेन्द्र का आर्जव रुप सरल धर्म प्रवेश नहीं करता है। पृ. २९६ ३१. अभक्ष्य-भक्षण करनेवालों के व अन्याय के विषय तथा धन भोगनेवालों के परिणाम इतने मलिन होते हैं कि करोड़ोंबार धर्म का उपदेश व समस्त सिद्धान्त शास्त्रों की शिक्षा बहुत वर्षों से सुनते रहने पर भी वह कभी हृदय में प्रवेश नहीं करती है। पृ. ३०२ ३२. जिनको पचास वर्ष शास्त्र सुनते हुये हो गये हैं, किन्तु जिन्हें धर्म के स्वरुप ज्ञान ही नहीं हुआ है, वह सब अन्याय का धन तथा अभक्ष्य का फल है। पृ. ३०२ ३३. जो कृतघ्नी, उपकार को लोपनेवाले हैं उनके पाप का सन्तान क्रम असंख्यात भवों तक करोंड़ों तीर्थो में स्थान करने से दान करने से दूर नहीं होता है। विश्वासघाती सदा ही मलिन है। पृ. ३०२ ३४. पांचव्रतों का धारण, पांच समितियों का पालन, चार कषायों का निग्रह, तीन दण्डों का त्याग, पांच इंद्रियों की विजय को जिनेन्द्र के परमागम में संयम कहा है। पृ. ३०३ ३५. संयम पाकर उसे बिगाड़ने के समान बड़ा अनर्थ दूसरा नहीं है। पृ. ३०४ ३६. जैसे पाषाण में जल प्रवेश नहीं करता है उसी प्रकार सदगुरुओं का उपदेश कठोर पुरुष के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। पृ. २९१ पृ. ३१३ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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