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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४८०]
पृ. ४६१
६६. इस समस्त लोक में बालू रेत के कण के समान किसी का किसी से संबंध नहीं है। पृ. ३९६ ६७. कर्ममल को धोकर शुद्ध आत्म स्वरुप में स्थिर होना वह लोकोत्तर शौच है।
पृ. ३९९ ६८. रागादि दोष रहित अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा में परवृत्ति करना वह चारित्र है।
पृ. ४०१ ६९. सन्मार्ग छूटने पर असंख्यात भवों तक सम्यकबुद्धि प्रकट नहीं होती है, जिनसिद्धान्त के सत्य उपदेश हृदय में प्रवेश नहीं करते हैं।
पृ. ४२१ ७०. सिद्ध परमेष्ठी के गुण समूह के स्वभावरुप अपने स्वरुप का अनुभव करना वही परमात्मा में युक्त होना है।
पृ. ४२२ ७१. अनादिकाल से ही इस संसारी की पर्याय में आत्मबुद्धि हो रही है।
पृ. ४३३ ७२. मिथ्यादर्शन के प्रभाव से मैंने इस देह को ही आत्मा मानकर अपने ज्ञानदर्शन स्वरुप का घात करके अनन्त परिवर्तन किये हैं।
पृ. ४३४ ७३. जैसे अग्नि से झोपड़ी जलती है, झोपड़ी के भीतर का आकाश नहीं जलता है, वैसे ही अविनाशी, अमूर्तिक, चैतन्य धातुमय आत्मा का रोगरुप अग्नि से नाश नहीं होता है।
पृ. ४४१ ७४. समस्तदुःखों का मूल कारण इस जीव को एक शरीर का ममत्व है। ७५. जो अपने को समय अर्थात् शुद्ध आत्म स्वरुप को जानता है, वही अपने कल्यान को जानने वाला होता है।
पृ. ४७० शुद्ध जैनाचार संबंधी वाक्यांश यदि उज्ज्वल हिंसारहित कर्म से अपनी आजीविका होती हो तो निंद्यकर्म द्वारा, संक्लेश भाव द्वारा लोभादि के वशीभूत होकर, पाररुप आजीविका नहीं करना।
पृ. ९१ उत्तम कुलवाला तो खेती करता ही नहीं हैं।
पृ. ९२ कठिनाई से किसी पूर्व पुण्य के उदय से मनुष्य जन्म पाया है, तो इसमें वचन बोलने में बहुत सावधानी रखो। वचनकृत उपकार के प्रभाव से प्रथम अरहन्तों को ही नमस्कार किया है। समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है।
पृ. १०३ आजीविका का उपाय न्यायमार्ग से ही करना चाहिये।
पृ. १०६ जिन्होंने पूर्वजन्म में कुपात्र दान दिया हैं, कुतप करके खोटा पुण्य बाँधा है उनके पास कुमार्ग से धन आता है। पूर्व पुण्य बिना पाप से ही तो धन नहीं आता है।
पृ. ११० यदि गृहस्थ के पांच पाप और तीन मकार के त्याग में दृढ़ता आ जाये तो समस्त गुणरुप महल की नींव लग गई। अनादिकाल के संसार में परिभ्रमण का कारण मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य थे। पृ. ११२ अन्न-जल आदि का असंख्यात वर्ष तक भक्षण करने पर उसमें जो एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती
है उससे अनन्तगुणे जीवों की हिंसा एक सुई की अणिमात्र मांस के खाने में होती है। पृ. ११६ १०. मनुष्य जन्म की एक घड़ी भी करोड़ो के धन में नहीं मिलती है।
पृ. १३४ ११. जैनशास्त्रों को सुनता-पढ़ता हुआ भी जो दूसरों के धन पर अपनी नियत चलाता है वह ठग है। पृ. १३६ १२. नगर-शहर में बसने का फायदा तो यह है कि जिस समय चाहो जितना आवश्यक हो अच्छा निर्दोष समान देखकर खरीद सकते हैं।
पृ. १४० १३. जरदा खानेवालों की बुद्धि आत्मा के हित में नहीं प्रवर्तती है, उन्हें सच्चा धर्म नही हो सकता है। पृ. १४३ १४. एक करोड़ कसाईयों की हिंसा के बराबर एक अतार की दवाइयों में हिंसा है।
पृ. १४६
पृ. ९८
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