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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार]
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पृ. २८९
४४. सम्यग्दर्शन में तथा अर्हन्तभक्ति में नाम भेद है, अर्थ भेद नहीं है।
पृ. २६० ४५. नाम, जाति, कुलादि तेरा स्वरुप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ। ४६. वीतराग धर्म के धारकों को तो अपने आत्मा का शुद्धपना साधने योग्य है।
पृ. २९२ ४७. जो अपने आत्मा को देह से भिन्न ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगमय, अखण्ड, अविनाशी,जन्म-जरामरण रहित अनुभव करता है ध्याता है , उसे शौचधर्म होता है।
पृ. ३०१ ४८. अपने ज्ञान-दर्शनमय स्वरुप के बिना अन्य किंचिन्मात्र भी मेरा नहीं है, मैं किसी अन्य द्रव्य का नहीं हूँ, ऐसे अनुभव को आकिंचन्य धर्म कहते हैं।
पृ. ३०१ ४९. समस्त विषयों में अनुराग छोड़कर ब्रह्म जो ज्ञायक स्वभाव आत्मा उसमें चर्या अर्थात् प्रवृत्ति करना वह ब्रह्मचर्य है।
पृ. ३११ ५०. जो इच्छा करता है उसका पुण्य भी नष्ट हो जाता है, तथा पाप का बंध हो जाता है। पृ. ३१७ ५१. मिथ्यात्व का जहर उगले बिना सत्यधर्म प्रवेश ही नहीं करता है।
पृ. ३१९ ५२. जो भवितव्यता है वह दुर्लध्य है। यदि मरण का, हानि का, वियोग का दिन आ जाय तो उसे एक क्षण भी टालने में कोई इन्द्र जिनेन्द्र, नरेन्द्र समर्थ नहीं है।
पृ. ३४८ ५३. मुझमें और परमात्मा में गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, शक्ति-व्यक्ति का ही भेद है। मैं सिद्ध समान, निर्विकार, स्वाधीन, सुखस्वरुप हूँ।
पृ. ३४८ ५४. कर्म के उदय जनित पर पुद्गलों की विनाशक पर्यायों में जिसकी आत्मबुद्धि होती है वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है।
पृ. ३५९ ५५. जो सिद्धात्मा है सो मैं हूँ, जो मैं हूँ सो परमेश्वर है। इसलिये मेरे स्वरुप से अन्य मुझे उपासना
करने योग्य दूसरा नहीं है तथा मैं किसी अन्य के द्वारा उपासना करने योग्य नहीं हूँ। पृ. ३६१ ५६. अपने चित्त को विकल्परहित करना ही परमतत्त्व है, तथा अनेक विकल्पों से उपद्रवित करना ही अनर्थ है।
पृ. ३६१ ५७. अपने आत्मज्ञान के भ्रम से उत्पन्न दुःख आत्मा का ज्ञान करने से ही नष्ट होता है। पृ. ३६१ ५८. शरीर को आत्मा जानना वह देह धारण करने की परिपाटी का कारण है, तथा अपने स्वरुप को आत्मा जानना, वह अन्य शरीर धारण करने से छूटने का कारण है।
पृ. ३६२ ५९. ज्ञानी अपने सिद्ध समान शुद्ध स्वरुप की आराधना करके सिद्धपने को प्राप्त हो जाते हैं। यह आत्मा भी अपने आत्मा की आराधना करके परमात्मा हो जाता है।
पृ. ३६३ ६०. परमात्मपद का बीज बहिरात्मत्पना छोड़कर अंतरात्मपने में लीन होना है। ६१. अनादि के भ्रम से उत्पन्न हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषायादि कर्मबंध के कारण मेरे दुर्निवार हैं। यद्यपि मैं तो शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय निर्मल नेत्र का धारक सिद्ध स्वरुप हूँ।
पृ. ३६६ ६२. मेरा स्वरुप ज्ञातादृष्टा, अविनाशी, अखण्ड है, कर्म की उदयजनित परिणति से भिन्न है। पृ. ३६७ ६३. मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्यादि के प्रभाव से जीव के समस्त ज्ञानादि गुण नष्ट हो जाते हैं। पृ. ३८६ ६४. सुख तो पांचों पापों के त्याग से होता है। मिथ्यादृष्टि पांचों पाप करके अपने धन की वृद्धि, कुटुम्ब
की वृद्धि, सुख की वृद्धि चाहता है। इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति होने में सुख जानता है, यही मोह से अंधापना है।
पृ. ३९४ ६५. ये स्वामी, सेवक, पुत्र, स्त्री, मित्र, बांधवों को जो अपना मानते हो वह मिथ्यामोह की महिमा है, । इसी को मिथ्यात्व कहते हैं।
पृ. ३९६
पृ. ३६४
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