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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४७६]
वचनिकाकार प्रशस्ति दोहा- मगंल श्री अरंहतजिन, मंगल श्री जिनवानि ।
सिद्ध साधु जिन धर्म नीति, करै विध्न की हानि ॥१ चौपाई - देश धर्मधर कू आधार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।
स्वामि समंतभद्र रचिसार, कीनों भव्यनि को उपकार ॥२ याकी महिमा कहत न बनै, सुनि धारै कर्मनिकों हनै ३ याकी देश वनिका हो, तो याकू समझै सब कोय ।।४ या विचारि उद्यम मैं किया, तुच्छ बुद्धि माफिक लिखि दिया ।५ चूक भूलि लखि हास्य न करो, दोष टालि गुण संग्रह करो ।।६ राग द्वेष मद वशि हम परै, चूक रहित गुण कैसे धरै ।।७ ज्ञानी ऐसा करि निरधार, दया सहित तिष्ठो अविकार ।।८ संवत् उगणीसै उगणीस, मगसर बदि अष्टमि दिनईस ।९ लिखने का आरंभ जु किया, शुभ उपयोग माहिं चित दिया ।।१० संवत् उगणीसै अरु बीस, चैत कृष्ण चउदसि निज शीस ११
पूरण करि स्थापन जब किया, शुभ उद्यम का निज फल लिया ।।१२ जयपुर नगर मनोज्ञ अति,धन मति धर्म विचार। वर्णाश्रम आचार को , अति उज्ज्वल आधार ।।१३ यामै राजकरै निपुण , रामसिंह जन पाल। क्रोध लोभ मद टारिक, विध्न हरण को ढाल ।।१४ जैनीजन इहां बहु बसैं , दया धर्म निज धार। स्याद्वाद ज्ञायक प्रबल, मत एकांत निवार ।।१५ गोत्र काशलीवाल है, नाम सदासुख जास। सहली तेरापंथ में करें जु ज्ञान अभ्यास ।।१६ जिन सिद्धान्त प्रसाद से, लिखी वचनिका सार। पढ़ि सुनि श्रद्धा भक्तितें, करो धर्म निरधार ।।१७ मेरे शुभ उपयोग तैं, बढ़यो जु अति उत्साह। तातै उद्यम करि लिखी, अन्य नहीं कछु चाह ।।१८ समयसार गुन कहन कू, शक्त न सुरगुरु होय। ताको शरण सदा रहो, रागादिक मलधोय ।।१९ हे! जिनवानी भगवती, भुक्ति मुक्ति दातार। तेरे सेवन से रहै , सुख मय नित अविकार ।।२० दुःख दरिद्र जाण्यो नहीं, चाह न रही लगार। उज्ज्वल यशमय विसतरयों ,यो तेरो उपकार ।।२१ अड़सठि वरसजु आयु के, बीते तुझ आधार। शेष आयु तब शरण तें, जाहु यही मम सार।।२२ जितनै भव तितनै रहों, जैन धर्म अमलान। जिनवर धर्म बिना जु मम, अन्य नहीं कल्यान ।।२३ जिनवाणी सूं वीनती, मरण वेदना रोक। आराधन के शरणतै, देह मुझे परलोक ।।२४ बाल मरण अज्ञानतै, करे जु अपरंपार। अब आराधन शरणतै, मरण होहु अविकार ।।२५ हरि अनीति कुमरण हरो, करो जु ज्ञान अखण्ड। मोकू नित भूषित करो, शास्त्र जु खण्ड ।।२६ संवत् १९२० चैत्र कृष्णा चतुर्दशी मंगलवार के दिन मूलग्रन्थ समाप्त भयो।
मूलग्रन्थ समाप्त
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