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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार 1 जैनतत्व ज्ञान संबंधी वाक्यांश धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। परद्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञातादृष्टारुप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है वह धर्म है। पृ. २ इस देह में पैर के नख से लगाकर मस्तक तक जो ज्ञान है, चैतन्य है वह हमारा धन है। इस ज्ञानभाव से भिन्न एक परमाणु मात्र भी हमारा नहीं है। ३. पृ. २२ मैं ज्ञान स्वरुप आत्मा उत्पन्न नहीं हुआ, अतः विनाश को भी प्राप्त नहीं होऊंगा। हमारा लोक तो हमारा ज्ञान-दर्शन स्वभाव है, जिसमें सभी पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं जिसमें समस्त पदार्थ झलकते हैं ऐसे अपने ज्ञानस्वभाव का अवलोकन करता हूँ। १. २. ४ ५ ६. ७. ८. आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्तारुप भाव प्राण हैं, उनका किसी भी काल में नाश नहीं होता है। वस्तु का जो निजरूप है, वह अपने स्वरूप के भीतर ही है। इसमें पर का प्रवेश ही संभव नहीं है। सम्यग्दृष्टि अहिंसा को ही निश्चयरूप धर्म जानता है। जो सम्यग्द्दष्टि है उसे आत्मा का अनुभव तो होता ही है। ९. जो सम्यग्दृष्टि है, वह वस्तु का सच्चा स्वरुप जानता ही है। १०. यहां संसारी जीव मिध्यात्व के प्रभाव से रागद्वेषी देवों की पूजन प्रभावना देखकर प्रशंसा करते हैं। ११. जो किसी का अपराध नहीं करता, वैर नहीं करता उसकी विराधना देव भी नहीं कर सकते । १२. १५. [४७७ पृ. २५ जो सम्यक्त्व होता है वह मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव होने पर होता है। अव्रत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय का अभाव हुआ है। मिथ्यात्व के अभाव से तो सच्चा आत्मतत्त्व का तथा परतत्त्व का श्रद्धान प्रकट होता है। अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव से विपरीत राग भाव का अभाव होता है। पृ. २६ पृ. २८ पृ २९ पृ २९ वह सब २९ यक्ष, क्षेत्रपाल, पद्मावती, चक्रेश्वरी इत्यादि को जिनशासन की रक्षक मानकर पूजते हैं, तीव मिथ्यात्व का प्रभाव है। पृ. ३१ १४. १३. क्षेत्र, कालादि के निमित्त से जो भावी होनहार है, उसे टालने में कोई भी समर्थ नहीं है। प्रवचनसार सिद्धान्तग्रन्थ में ऐसा कहा है राग, द्वेष, मोह ये बंध के ही कारण हैं। पाप कर्म का बंध करते हैं। १९. पृ. २२ पृ. २३ पृ. २३ पृ. २४ पृ. ३३ अज्ञानरूप अंधकार को स्याद्वादरूप परमागम के प्रकार से दूरकर, स्वरुप और पररूप का प्रकाशज्ञान करना वह प्रभावना नाम का अंग है। पृ. ३५ १६. जिसका आठ अंगों में से यदि एक भी अंग कम है प्रकट नहीं हो पाया है उसके संसार का अभाव नहीं होता है। १७. आत्मा तो अपने स्वभाव से ही अत्यन्त पवित्र है। — पृ. ३६ पृ. ३९ १८. जगत के पापी मिध्यादृष्टि लोगों ने निश्चयरूप निर्मल तत्त्वों का सरोवर देखा ही नहीं है, और कभी ज्ञानरुप रत्नाकर समुद्र भी नहीं देखा है। समता नाम की अत्यन्त शुद्ध नदी भी नहीं देखी है। पृ. ४० यह भगवान जिनेन्द्र का धर्म अनेकान्तरूप है निश्चय व्यवहार का विरोध रहित ही धर्म है, सर्वथा एकान्तरुप जिनेन्द्र का धर्म नहीं है । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com पृ. ४२ २०. आगम की आज्ञा मानने में ही हित है। पृ. ४२ २९. जो जैनी है और अपने को अव्रती जानता है, वह सम्यग्दृष्टि से अपनी वंदना पूजा कैसे करायेगा ? पृ. ४५
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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