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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार]
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येन स्वयं वीतकलंकविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम् । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ।।१४९ ।।
अर्थ :- जो पुरुष अपने आत्मा को कलंक व अतिचारों से रहित निर्दोष ज्ञान-दर्शनचारित्ररुप रत्नों का करण्ड अर्थात् पिटारा की पात्रता को प्राप्त कर लेता है, उस पुरुष को तीनलोक में सर्व वांछित अर्थ की सिद्धि उसी प्रकार हो जाती है जिस प्रकार अपने पति को प्राप्त स्त्री की सर्व-अर्थ सिद्धि हो जाती है।
भावार्थ :- जिस पुरुष ने अपने आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररुप रत्नों का पात्र बनाया उसे तीन भुवन की सर्वोत्कृष्ट अर्थ की सिद्धि स्वयमेव ही प्राप्त हो जाती है, ऐसा नियम है।
अंतिम प्रार्थना (मंगल) सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीताज्जिनपतिपद पद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी : ।।१५० ।।
अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों का अवलोकन करनेवाली सम्यग्दर्शनरुप लक्ष्मी मुझे उसी प्रकार सुखी कर दे, जिस प्रकार कामिनी (स्त्री) कामी पुरुष को सुखी कर देती है; जैसे शुद्धशीला अर्थात् शुद्ध स्वभाव की धारक माता अपने पुत्र का पालन करती है, वैसा ही मेरा पालन करो; तथा जैसे शीलादि गुण ही हैं आभूषण जिसके ऐसी कन्या कुल को पवित्र करती है, उसी प्रकार हे सम्यग्दर्शन ! मुझे भी पवित्र करो, उज्ज्वल करो।
भावार्थ :- जैसे काम के आताप से दुःखी पुरुष को कामिनी सुखी कर देती है, जैसे शुद्धि स्वभाव की धारक माता अपने पुत्र का पालन करती है, तथा जैसे गुणवान कन्या कुल को पवित्र करती है, उसी प्रकार जिनपति अथात् शुद्धात्मा को भावों मे साक्षात् अवलोकन करानेवाली सम्यग्दर्शनरुप लक्ष्मी मेरे मिथ्याज्ञान जनित आताप को दूर करके मुझे नित्य अनन्त ज्ञानादि रुप आत्मीक सुख को प्राप्त कराओ; संसार के जन्म-जरा मरणादि दुःख निवारण करके मेरे अनन्त चतुष्टयादि स्वरुप को पुष्ट करो, तथा राग-द्वेष-मोह रुप मल को दूर करके मेरे आत्म स्वरुप को उज्ज्वल करो।
अष्टम सल्लेखना अधिकार समाप्त
मूल ग्रन्थ कर्ताः आचार्य संमतभद्र स्वामी ढुंढारी भाषा-टीका कर्ताः पं. सदासुखदासजी कासलीवाल हिन्दी भाषा परिवर्तन कर्ताः मन्नूलाल जैन वकील, सागर
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