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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४७४] ढांके तो पैर नहीं ढंके, पैर ढांके तो मस्तक नहीं ढंके, केवल कुछ डांस, मच्छर, शीत, आताप, वर्षा, पवन के परिषह में सहारा रहे - तथा भिक्षा - भोजन अयाचीक वृत्ति पूर्वक मौन सहित ग्रहण करता है । अपने लिये बनाया गया भोजन ग्रहण नहीं करता है; निमन्त्रण करने पर बुलाने पर नहीं जाता है; अपने लिये कुछ भी आरंभ किया जान ले तो भोजन का त्याग कर देता है; वन में या ग्राम के बाहर वस्तिका में रहता है; उपसर्ग परीषह आ जाय तो निर्भय होकर सहता है; कायरता या दीनता नहीं दिखाता है; ध्यान - स्वाध्याय में सदाकाल लीन रहता है। गृहस्थ के घर बिना बुलाये जाता है, गृहस्थ ने स्वयं के लिये जो भोजन बनाया हो उसमें से, भक्ति पूवर्क दिया हुआ, ग्रहण करता है। रस सहित हो या रस रहित हो, कडुआ-खारा-मीठा जो गृहस्थ दे, वह समभावों से आहार ग्रहण करता है; दिन में एकबार आहार–पान ग्रहण करता हैं; अंतराय हो जाय तो उपवास करता है। अनशनादि तप में शक्ति अनुसार उद्यमी रहता है। ऐसा उद्दिष्ट आहार त्याग नाम का ग्यारहवा उत्कृष्ट श्रावक का स्थान है। इस प्रकार श्रावक धर्म के ग्यारह पद कहे हैं, उनको अपनी शक्ति प्रमाण अंगीकार करना चाहिये । ११ । अब श्रेष्ठ ज्ञाता का स्वरुप कहते हैं: पापमरातिर्धर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति । । १४८ ।। अर्थ :- पाप इस जीव का वैरी है, धर्म वह बन्धु है - ऐसा दृढ़ निश्चय करता हुआ जो अपने को समय अर्थात् शुद्ध आत्म स्वरुप को जानता है, वही अपने कल्याण के जाननेवाला होता है। भावार्थ :- इस जीव का संसार में दुःख देनेवाला कोई वैरी ही नहीं है, एक अपने विषयकषायों के मिथ्या (विपरीत) अनुराग से उत्पन्न किया पाप कर्म वही वैरी हैं, अन्य तो बाह्य निमित्त मात्र हैं। अन्य जो दुर्वचन बोलनेवाले, दोषों को कहनेवाले, धन-आजीविका-स्थान को जबरदस्ती से छीननेवाले, ताड़न - मारन बंधन - छेदन करनेवाले हैं, वे मेरे उत्पन्न किये पापकर्म के उदय से संबधित हैं। जो अपने पापकर्म के सिवाय अन्य पुरुष को वैरी मानता है वह मिथ्याज्ञानी हैं; उसने जिनेन्द्र के आगम को जाना ही नहीं है । इसी प्रकार इस जीव का उपकारक बंधु यदि कोई है तो वह पुण्य कर्म ही है। जो अपने पुण्य कर्म के उदय के सिवाय अन्य को उपकारक जानता है, वह भगवान के आगम का ज्ञानी नहीं, मिथ्याज्ञानी है। अब श्रावकाचार के उपदेश को समाप्त करते हुए श्री समन्तभद्र स्वामी फल प्रतिपादन करने वाला श्लोक कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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